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प्रतिक्रमण सूत्र ।
अन्वयार्थ' जगचिंतामणि' जगत् में चिन्तामणि रत्न के समान, 'जगहनाह' जगत् के स्वामी, 'जगगुरु' जगत् के गुरु, 'जगरक्खण' जगत् के रक्षक, 'जगबंधव' जगत् के बन्धु - हितैषी, 'जगसत्थवाह' जगत् के सार्थवाह - अगुए, 'जगभावविअक्खण' जगत् के भावों को जानने वाले 'अट्ठावयसंठविअरूव' अष्टापद पर्वत पर जिन की प्रतिमायें स्थापित हैं, 'कम्मट्ठविणासण' आठ कर्मों का नाश करने वाले 'अप्पडिहय सासण' अबाधित उपदेश करने वाले [ ऐसे ] 'चउवीसंपि' चौबीसों 'जिणवर' जिनेश्वर देव 'जयंतु' जयवान् रहें ॥ १ ॥
भावार्थ – [ चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति ] जो जगत् में चिन्तामणि रत्न के समान वाञ्छित वस्तु के दाता हैं, जो तीन जगत् के नाथ हैं, जो समस्त जगत् के शिक्षा-दायक गुरु हैं, जो जगत् के सभी प्राणियों को कर्म से छुड़ाकर उनकी रक्षा करने वाले हैं, जो जगत् के हितैषी होने के कारण बन्धु के समान हैं, जो जगत् के प्राणिगण को परमात्म-पद के उच्च ध्येय की ओर खींच ले जाने के कारण उसके सार्थवाहनेता हैं, जो जगत् के संपूर्ण भावों को पदार्थों को पूर्णतया जानने वाले हैं, जिनकी प्रतिमायें अष्टापद पर्वत के ऊपर स्थापित हैं, जो आठ कर्मों का नाश करने वाले हैं और जिनका शासन सब जगह अस्खलित है उन चौबीस तीर्थङ्करों की जय हो ॥ १ ॥
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