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प्रतिक्रमण सूत्र । 'गुरुजणपूआ पूजनीय जनों की पूजा, 'परत्थकरणं' परोपकार का करना, 'सुहुगुरुजोगों' पवित्र गुरु का सङ्ग 'च'
और 'तव्वय-णसेवणा' उनके वचन का पालन 'आभवं' जीवन पर्यन्त 'अखंडा' अखण्डित रूप से 'होउ' हो ॥ १-२ ॥
भावार्थ-हे वीतराग ! हे जगद्गरो ! तेरी जय हो । संसार से वैराग्य, धर्म-मार्ग का अनुसरण, इष्ट फल की सिद्धि, लोकविरुद्ध व्यवहार का त्याग, बड़ों के प्रति बहुमान, परोपकार में प्रवृत्ति, श्रेष्ठ गुरु का समागम और उन के वचन का अखण्डित आदर-ये सब बातें हे भगवन् ! तेरे प्रभाव से मुझे जन्म-जन्म में मिलें ॥ १-२॥
* वारिज्जइ जइवि निया-ण बंधणं वीयराय ! तुह समए॥ तहवि मम हुज्ज सेवा, भव भव तुम्ह चलणाणं ॥३॥
अन्वयार्थ-वीयराय' हे वीतराग ! 'जइवि' यद्यपि 'तुह' तेरे 'समए' सिद्धान्त में 'नियाणबधणं' निदाननियाणा करने का' 'वारिज्जई' निषेध किया जाता है 'तहवि' तो भी 'तुम्ह' तेरे 'चलणाणं' चरणों की 'सेवा' सेवना. 'मम' मुझको 'भवे भवे' जन्म-जन्म में 'हुज्ज' हो ॥३॥
* वार्यते यद्यपि निदानबन्धनं वीतराग ! तव समये।
तथापि मम भवतु सेवा भवे भवे तव चरणयोः ॥ ३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org