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लोगस्स। मल्लिनाथ, श्रीमुनिसुव्रत, श्रीनमिनाथ, श्रीअरिष्टनेमि, श्रीपार्श्वनाथ और श्रीमहावीर स्वामी-इन चौबीस जिनेश्वरों की मैं स्तुति-वन्दना करता हूँ ॥ २-४ ॥ * एवं मए अभिथुआ, विहुयरयमला पहीणजरमरणा ।
चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पनीयंतु ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ----' एवं' इस प्रकार 'मए' मेरे द्वारा 'अभिथुआ स्तवन किये गये. — विहुयरयमला 'पाप-रज के मल से विहीन, 'पहीणजरमरणा ' बुढ़ापे तथा मरण से मुक्त, 'तित्थयरा' तीर्थ के प्रवर्तक । चउवीसंपि ' चौबीसों 'जिणवरा' जिनेश्वर · देव मे' मेरे पर 'पसायंतु ' प्रसन्न हों ॥ ५ ॥ + कित्तियवदियमहिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा।
आरुग्गबोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥६॥
अन्वयार्थ-'जे' जो ‘लोगस्स' लोक में 'उत्तमा । प्रधान [ तथा ] 'सिद्धा' सिद्ध हैं [ और जो ] “कित्तियवंदियमहिया' कीर्तन, वन्दन तथा पूजन को प्राप्त हुए हैं 'ए' वे [ मुझको ] 'आरुग्गबोहिलाभं ' आरोग्य का तथा धर्म का लाभ [ और ] — उत्तमं ' उत्तम 'समाहिवर' समाधि का वर · दितु ' देवें ॥ ६॥
* एवं मयाऽभिष्टुता विधूतरजोमलाः प्रहीणजरामरणाः । ___ चतुर्विंशतिरपि जिनवरास्तीर्थकरा मे प्रसीदन्तु ॥ ५ ॥ + कीर्तितवन्दितमहिता य एते लोकस्योत्तमाः सिद्धाः ।
आरोग्यबेधिलाभसमाधिवरमुत्तमं ददतु ॥ ६॥
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