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में भी उस भाग को श्रीवट्टकेर स्वामी ने निर्युक्ति के नाम से ही निर्दिष्ट किया है ( मूलाचार, गा० ६८९ - ६९०)।
इस से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय श्रीभद्रबाहु-कृत नियुक्ति का जितना भाग दिगम्बर-संप्रदाय में प्रचलित रहा होगा, उस को संपूर्ण किंवा अंशतः उन्हों ने अपने ग्रन्थ में सन्निविष्ट कर दिया । श्वेताम्बर - संप्रदाय में पाँचवाँ 'आवश्यक' कायोत्सर्ग और छठा प्रत्याख्यान है । नियुक्ति में छह 'आवश्यक' का नाम-निर्देश करने वाली गाथा में भी वही क्रम है; पर मूलाचार में पाँचवाँ 'आवश्यक' प्रत्याख्यान और छठा कायोत्सर्ग है ।
"खामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे ।
सव्वभूदे, वैरं मझं ण केण वि ॥" - बृहत्प्रतिक्र० । "खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे । मेसी मे सव्वभूएस, वेरं मज्झ न केणई ।। " - आव०, पृ०७६५ । " एसो पंचणमायारो, सव्वपावपणासणो ।
मंगलेसु य सव्वेसु, पढमं हवदि मंगलं ॥ ५१४ ॥ " -मूला० । "एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ १३२ ॥ " - आव० नि० | "सामाइयंमद कदे, समणो इव सावओ हवदि जम्हा |
एन कारण दु, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ ५३१ ॥ " -मूला० । "सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा | एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा॥८०१॥" - आव० नि० |
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