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गुरु की कृति को स्मृति-पथ में रक्खा और दूसरी शिष्य-परंपरा, जो उत्तर हिंदुस्तान में रही, एवं आगे जा कर बहुत अंशों में श्वेताम्बर-संप्रदाय-रूप में परिणत हो गई, उस ने भी अन्य ग्रन्थों के साथ-साथ अपने गुरु की कृति को सम्हाल रक्खा । क्रमशः दिगम्बर-संप्रदाय में साधु-परंपरा विरल होती चली; अत एव उस में सिर्फ 'आवश्यक-नियुक्तिः ही नहीं, बल्कि मूल 'आवश्यक-सूत्र' भी त्रुटित और विरल हो गया ।
इस के विपरीत श्वेताम्बर-संप्रदाय की अविच्छिन्न साधुपरंपरा ने सिर्फ मूल 'आवश्यक-सूत्र' को ही नहीं, बल्कि उस की नियुक्ति को संरक्षित रखने के पुण्य-कार्य के अलावा उस के ऊपर अनेक बड़े-बड़े टीका-ग्रन्थ लिखे और तत्कालीन आचार-विचार का एक प्रामाणिक संग्रह ऐसा बना रक्खा कि जो आज भी जैनधर्म के असली रूप को विशिष्ट रूप में देखने का एक प्रबल साधन है।
अब एक प्रश्न यह है कि दिगम्बर-संप्रदाय में जैसे नियुक्ति अंशमात्र में भी पाई जाती है, वैसे मूल 'आवश्यक' पाया जाता है या नहीं ? अभी तक उस संप्रदाय के 'आवश्यकक्रिया' सम्बन्धी दो ग्रन्थ हमारे देखने में आये हैं। जिन में एक मुद्रित और दूसरा लिखित है। दोनों में सामायिक तथा प्रतिक्रमण के पाठ हैं। इन पाठों में अधिकांश भाग संस्कृत है, जो मौलिक नहीं है। जो भाग प्राकृत है, उस में भी नियुक्ति के आधार से मौलिक सिद्ध होने वाले 'आवश्यक-सूत्र' का अंश ब्रहत कम है।
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