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कोई-कोई चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण में भी शय्यादेवता का काउस्सग्ग करते थे और क्षेत्रदेवता का काउस्सग्ग तो चातुर्मासिक और सांवत्सरिक - पूतिकमण में पूचलित था (आवश्यक वृत्ति, पृ०४९४; भाप्य - गाथा २३३) ।
इस जगह मुख पर मुँहपत्ती बाँधने वालों के लिये यह बात ख़ास अर्थ-सूचक है कि श्रीभद्रबाहु के समय में भी काउस्सग्ग करते समय मुँहपत्ती हाथ में रखने का ही उल्लेख है ( आवश्यक निर्युक्ति, पृ० ७९७, गाथा १५४५) ।
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मूल 'आवश्यक' के टीका- ग्रन्थः - ' आवश्यक, यह साधु श्रावक - उभय की महत्त्वपूर्ण किया हैं । इस लिये 'आवश्यकसूत्र' का गौरव भी वैसा ही है । यही कारण है कि श्रीभद्रबाहु स्वामी ने दस नियुक्ति रच कर तत्कालीन पूथा के अनुसार उस की प्राकृत-पद्य मय टीका लिखी । यही 'आवश्यक' का प्राथमिक टीका- ग्रन्थ है । इस के बाद संपूर्ण 'आवश्यक' के ऊपर प्राकृतपद्य-मय भाष्य बना, जिस के कर्ता अज्ञात हैं । अनन्तर चूर्णी ! बनी, जो संस्कृत-मिश्रित प्राकृत- गद्य मय है और जिस के कर्ता संभवतः जिनदास गणि हैं
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अब तक में भाषा-विषयक यह लोक-रुचि कुछ बदल गई थी । यह देख कर समय-सूचक आचार्यों ने संस्कृत भाषा में भी टीका लिखना आरम्भ कर दिया था । तदनुसार 'आवश्यक' के ऊपर भी कई संस्कृत - टीकाएँ बनीं, जिन का सूचन श्रीहरिभद्र सूरि ने इस प्रकार किया है:
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