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( ४७ ) "यद्यपि मया तथान्यैः, कृतास्य विवृतिस्तथापि संक्षेपात् । तद्रूचिसत्त्वानुग्रह, हेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् ॥"
जान पड़ता है कि वे संस्कृत टीकाएँ संक्षिप्त रही (आवश्यकवृत्ति, पृ० ११) होंगी । अत एव श्रीहरिभद्र सूरि ने 'आवश्यक के ऊपर एक बड़ी टीका लिखी, जो उपलब्ध नहीं है; पर जिस का सूचन वे स्वयं "मया' इस शब्द से करते हैं और जिस के संबन्ध की परंपरा का निर्देश श्रीहेमचन्द्र मलधारी अपने 'आवश्यक-टिप्पण' पृ० १ में करते हैं।
बड़ी टीका के साथ-साथ श्रीहरिभद्र सूरि ने संपूर्ण 'आवश्यक' के ऊपर उस से छोटी टीका भी लिखी, जो मुद्रित हो गई है, जिस का परिमाण वाईस हजार श्लोक का है, जिस का नाम 'शिष्यहिता' है और जिस में संपूर्ण मूल 'आवश्यक' तथा उस की नियुक्ति की संस्कृत में व्याख्या है । इस के उपरान्त उस टीका में मूल, भाप्य तथा चूर्णी का भी कुछ भाग लिया गया है। श्रीहरिभद्र सूरि की इस टीका के ऊपर श्रीहेमचन्द्र मलधारी ने टिप्पण लिखा है । श्रीमलयगिरि सूरि ने भी 'आवश्यक' के ऊपर टीका लिखी है, जो करीब दो अध्ययन तक की है और अभी उपलब्ध है । यहाँ तक तो हुई संपूर्ण 'आवश्यक' के टीका-ग्रन्थों की बात; पर उन के अलावा केवल प्रथम अध्ययन, जो सामायिक अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध है, उस पर भी बड़े-बड़े टीका-ग्रन्थ बने हुए हैं । सब से पहले सामायिक अध्ययन की नियुक्ति के ऊपर श्रीजिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने प्राकृत-पद्य-मय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org