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( १७ ।
आत्मा वस्तुतः पूर्ण शुद्ध और पूर्ण बलवान् है, पर वह विविध वासनायों के अनादि प्रवाह में पड़ने के कारण दोषों की अनेक तहों से दबसा गया है ; इस लिये जब वह ऊपर उठने का कुछ प्रयत्न करता है, तब उस से अनादि अभ्यास-वश भूलें हो जाना सहज है । वह जब तक उन भूलों का संशोधन न करे, तब तक इष्ट-सिद्ध हो ही नहीं सकती । इस लिये पैरपर पर की हुई भूलों को याद करके प्रतिक्रमण द्वारा फिर से उन्हें न करने के लिये वह निश्चय कर लेता है। इस तरह से प्रतिक्रमण-क्रिया का उद्देश्य पूर्व दोषों को दूर करना और फिर से वैसे दोषों का न करने के लिये सावधान कर देना है, जिस से कि आत्मा दोष-मुक्त हो कर धीरे-धीरे अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाय । इसी से प्रतिक्रमण-क्रिया आध्यात्मिक है ।
कायोत्सर्ग चित्त की एकाग्रता पैदा करता है और आत्मा को अपना स्वरूप विचारने का अवसर देता है, जिस से आत्मा निर्भय बन कर अपने कठिनतम उद्देश्य को सिद्ध कर सकता है। इसी कारण कायोत्संग क्रिया भी आध्यात्मिक है। ___दुनियाँ में जो कुछ है, वह सब न तो भोगा ही जा सकता है और न भोगने के योग्य ही है तथा वास्तविक शान्ति अपरिमित भोग से भी सम्भव नहीं है। इस लिये प्रत्याख्यान-क्रिया के द्वारा मुमुक्षु-गण अपने को व्यर्थ के भोगों से बचाते हैं और उस के द्वारा चिरकालीन आत्म-शान्ति पाते हैं । अत एव प्रत्याख्यान क्रिया भी आध्यात्मिक ही है ।
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