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( २२ ) कारण हो या नहीं, पर प्रथम और चरम तीर्थकर के शासन में "प्रतिक्रमण'-सहित ही धर्म बतलायो गया है।
दूसरा प्रश्न साधु तथा श्रावक-दोनों के प्रतिक्रमण' की रीति से सम्बन्ध रखता है। सब साधुओं को चारित्र-विषयक क्षयोपशम न्यूनाधिक भले ही हो, पर सामान्यरूप से वे सर्वविरति वाले अर्थात् पञ्च महाव्रत को त्रिविध-त्रिविध-पूर्वक धारण करने वाले होते हैं । अत एव उन सब को अपने पञ्च महाव्रतों में लगे हुए अतिचारों के संशोधनरूप से आलोचना या 'प्रतिक्रमणः नामक चौथा 'आवश्यक' समानरूप से करना चाहिये
और उस के लिये सब साधुओं को समान ही आलोचना सूत्र पढ़ना चाहिये, जैसा कि वे पढ़ते हैं । पर श्रावकों के सम्बन्धमें तर्क पैदा होता है । वह यह कि श्रावक अनेक प्रकार के हैं। कोई केवल सम्यक्त्व वाला-अव्रती होता है, कोई व्रती होता है। इस प्रकार किसी को अधिक से अधिक बारह तक व्रत होते हैं और संलेखना भी । व्रत भी किसी को द्विविध-त्रिविध से, किसी को एकविध-त्रिविध से, किसी को एकविध-द्विविध से, इत्यादि नाना प्रकार का होता है। अत एव श्रावक विविध अभिग्रह वाले कहे गये हैं (आवश्यक-नियुक्ति, गा० १५५८ पादि) । भिन्न अभिग्रह वाले सभी श्रावक चौथे 'आवश्यक' २-“सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥ १२४४ ॥"
[आवश्यक-नियुकि।
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