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इस प्रकार यह स्पष्ट सिद्ध है कि आध्यात्मिक पुरुषों के उच्च तथा स्वाभाविक जीवन का पृथक्करण ही 'आवश्यक-क्रिया' के क्रम का आधार है।
जब तक सामायिक प्राप्त न हो, तब तक चतुर्विंशतिस्तव भावपूर्वक किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि जो स्वयं समभाव को प्राप्त नहीं है, वह समभाव में स्थित महात्माओं के गुणों को जान नहीं सकता और न उन से प्रसन्न हो कर उन की प्रशंसा ही कर सकता है। इस लिये सामायिक के बाद चतुर्विशतिस्तव है।
चतुर्विंशतिस्तव का अधिकारी वन्दन को यथाविधि कर सकता है । क्योंकि जिस ने चौबीस तीर्थंकरों के गुणों से 'प्रसन्न हो कर उन की स्तुति नहीं की है, वह तीर्थंकरों के मार्ग के उपदेशक सद्गुरु को भावपूर्वक वन्दन कैसे कर सकता है। इसी से वन्दन को चतुर्विंशतिस्तव के बाद रक्खा है।
बन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि आलोचना गुरु-समक्ष की जाती है । जो गुरु-वन्दन नहीं करता, वह आलोचना का अधिकारी ही नहीं। गुरु-वन्दन के सिवाय की जाने वाली आलोचना नाममात्र की आलोचना है; उस से कोई साध्य-सिद्धि नहीं हो सकती । सच्ची आलोचना करने वाले अधिकारी के परिणाम इतने नम्र और कोमल होते हैं कि जिस से वह आप ही आप गुरु के पेरों पर सिर नमाता है।
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