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भ्रूविभ्रान्तिर्मदनधनुषो विभ्रमानम्ववादीद्वक्त्रज्योत्स्नाशशधररुचं दूषयामास तस्याः ॥
अत्र पत्रदानपूर्वपचोपन्यासानुवाददूषणोद्भावनानां बुधजनप्रसिद्धक्रमेण रचितत्वादियं क्रमरचना । ' ( सरस्वतीकंठाभरण पृ० १८२ )
( ९ ) विशेषक : - विशेषक अलंकार का उल्लेख केवल दीक्षित ने ही किया है। दीक्षित ने मीलित तथा सामान्य नामक अलंकारों के दो विरोधी अलंकारों का उल्लेख किया है - उन्मीलित तथा विशेषक । मीलित तथा उसके विरोधी उन्मीलित का संकेत तो जयदेव ने भी किया है, पर जयदेव ने केवल सामान्य का विवेचन किया है, उसके विरोधी विशेषक का नहीं। सामान्य अलंकार वहाँ होता है, जहाँ दो वस्तुएँ सादृश्य के कारण इतनी घुलमिल जायँ कि उनमें परस्पर व्यक्तिभान न हो सके। इस स्थिति में जहाँ किसी विशेष कारण से व्यक्तिमान हो जाय, वहाँ विशेषक अलंकार माना जाता है । मीलित अलंकार तथा सामान्य अलंकार के संबंध में दीक्षित एवं मम्मट के मत भिन्न-भिन्न हैं। (दे०- कुवलयानन्द, हिन्दी, व्याख्या, टिप्पणी पृ० २४२ ) इसी दृष्टि से दीक्षित के उन्मीलित तथा विशेषक में भी ठीक वही भेद होगा। मम्मट के मतानुयायी तो उन्मीलित तथा विशेषक अलंकार मानते नहीं हैं। पंडितराज ने भी इनको नहीं माना है तथा इनका समावेश अनुमान में किया है । ( ढे० हिन्दी कुवलयानन्द टि० पृ० २४३ ) दीक्षित के इन दोनों अलंकारों का आधार जयदेव का उन्मीलित तथा शोभाकर का 'उद्भेद' नामक अलंकार है । दीक्षित ने इन्हीं के आधार पर सामान्य के विरोधी 'विशेषक' की भी कल्पना की है । मम्मट के मत से सामान्य अलंकार मानने वालों के लिए विशेषक का उदाहरण यह होगा :
जुवति जोन्ह में मिलि गई नैकु न देत लखाय ।
सोधें के डोरे बँधी अली चली सँग जाय ॥ ( बिहारी )
जब कि दीक्षित के मतानुयायी यहाँ विशेषक न मानकर मीलित का विरोधी उन्मीलित मानेगें । उनके मत से 'विशेषक' का उदाहरण निम्न पथ होगा, जहाँ मम्मट के मतानुयायी 'उन्मीलित' मानना चाहेंगे :
चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सोहाय ।
जानि परै सिय हियरे जब कुम्हिलाय ॥ (तुलसी)
इसका स्पष्ट प्रमाण अर्जुन दास केडिया का 'भारती- भूषण' है, जहाँ उन्होंने विहारी के उक्त दोहे में ‘उन्मीलित' अलंकार माना है । कन्हैयालाल पोद्दार ने काव्यकल्पद्रुम में केडिया जी की तरह दोनों अलंकारों का अलग-अलग से वर्णन न कर केवल उन्मीलित का ही वर्णन किया है तथा वे जयदेव के मत का अनुसरण करते हैं। उन्होंने 'चंपक हरवा' इत्यादि बरवै को उन्मीलित के ही उदाहरण के रूप में लिखा है । 3 हमारे मत से 'चंपक हरवा' में मीलित का विरोधी उन्मीलित है तथा 'जुवति जोन्ह' में सामान्य का विरोधी विशेषक। उद्योतकार ने इन दोनों अलंकारों का निषेध किया है। वे उन्मीलित को मीलित में समाविष्ट करते हैं तथा विशेषक का अन्तर्भाव सामान्य में मानते हैं ।
१. इस पद्य की व्याख्या के लिये देखिये । ( कुवलयानंद, हिंदी व्याख्या १० २३४ )
२. देखिये - भारती भूषण पृ० ३२९ ।
३. दे० काव्यकल्पद्रुम पृ० ३५२
३ कु० भ०