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[ ३२ ] स्पष्ट है, विश्वेश्वर यहाँ आर्थी निदर्शना ही मानते हैं। ठीक यही मत नागेग का है । उद्योत में वे ललित का खण्डन करते हैं :
'नितरां निर्गते नीरे सेतुमेषा चिकीर्षति' इत्यादौ किंचिदाक्षिण्यसमागततत्कालोपेक्षितप्रतिनिवृत्तनायिकान्तरासक्तनायकानयनाथ सखी प्रेषयितुकामां नायिकामुद्दिश्य सख्या वचनेऽप्यार्थी निदर्शनैव । एतेनात्र ललितालंकारः। वर्णनीयवाक्यार्थमनुक्त्वैव वये धर्मिणि तत्स्वरूपस्य कस्यचिदप्रस्तुतवाक्यार्थस्य वर्णनरूप इत्यपास्तम् ।' (उद्योत पृ० ४८१)
६. अनुज्ञा:-दीक्षित तथा पंडितराज दोनों ने ही अनुशा अलंकार का संकेत किया है। अनुज्ञा अलंकार वहाँ माना जाता है, जहाँ किसी दोष की इच्छा इसलिए की जाती है कि उस दोष में किसी विशेष गुण की स्थिति होती है। पंडितराज ने इसके ठीक विरोधी अलंकार "तिरस्कार' का भी संकेत किया है, जहाँ किसी गुण की भी अनिच्छा इसलिए की जाती है कि उसमें किसी दोष की स्थिति होती है । दीक्षित ने तिरस्कार का उल्लेख नहीं किया है और इसके लिये पंडितराज ने दीक्षित की आलोचना भी की है। (देखिये-कुवलयानन्द-हिंदी व्याख्या, टिप्पणी पृ० २२८ ) अन्य किन्हीं आलंकारिकों ने इसका संकेत नहीं किया है।
७. मुद्रा, ८. रत्नावली: दीक्षित के ये दो अलंकार जयदेव आदि किसी आलंकारिक में नहीं मिलते । मुद्रा अलंकार वहाँ माना गया है, जहाँ प्रस्तुतार्थपरक पदों के द्वारा सूच्य अर्थ की व्यंजना कराई जाय । रत्नावली अलंकार वहाँ होता है, जहाँ प्रकृत अर्थों का न्यास इस क्रम से किया जाय, जैसा कि वह लोकशास्त्रादि में पाया जाता है। मुद्रा अलंकार का संकेत हमें भोजराज के सरस्वतीकंठाभरण से मिलता है। भोजराज ने मुद्रा को अर्थालंकार न मानकर शब्दालंकार माना है तथा अपने २४ शब्दालंकारों में इसका भी वर्णन किया है। भोजराज के मतानुसार जहाँ किसी वाक्य में साभिप्राय वचन का संनिवेश किया जाय, वहाँ मुद्रा होती है, इसे मुद्रा इसलिये कहा जाता है कि यह सहृदयों को 'मुद्' (प्रसन्नता) देती है।'
साभिप्रायस्य वाक्ये यदुचसो विनिवेशनम् ।
मुद्रां तो मुत्प्रदायित्वारकाम्यमुद्राविदो विदुः ॥ ( सरस्वतीकंठाभरण २.४०) . भोजराज ने इसके छः भेद माने हैं- पदगत, वाक्यगत, विभक्तिगत, वचनगत, समुच्चयगत तथा संवृविगत । (२.४१ ) रत्नावली अलंकार भोज में भी नहीं मिलता। किंतु भोजराज के 'गुम्फना' नामक शब्दालंकार में एक भेद 'क्रमकृता गुम्फना' है। जहाँ एक वाक्य में शब्दार्थों की कम से रचना को जाय, वहाँ यह भेद होता है। यह क्रम बुधजनप्रसिद्ध या तत्तत् शास्त्रादि प्रसिद्ध हो सकता है। ऐसा जान पड़ता है, दीक्षित के 'रत्नावली' अलंकार का बीज यही है। भोजराज ने 'क्रमकृता गुंफना' का ठीक वही उदाहरण दिया है, जो दीक्षित ने रत्नावली का दिया है, साथ ही इस पद्य की विवेचना में भी भोज ने 'बुधजनप्रसिद्ध क्रम रचना' में ही 'क्रमगुंफना' मानी है। 'क्रमकृता' यथा
नीलाजानां नयनयुगलद्राधिमा दत्तपत्रः, कुम्भावेभो कुचपरिसरः पूर्वपचीचकार ।
१. 'मुदं रात्रि आदत्ते इति मुद्रा' इति व्युत्पत्तेः । २. दे० सरस्वतीकंठाभरण पृ० १८०-१८१ ।