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पण्डितजी लक्ष्मीको व्यय करनेमें जितने अनुदार हैं, उतने ही सरस्वतीकी सुरभिको फैलाने में उदार हैं । यही कारण है कि भारतवर्षके कोने कोने में उनका शिष्य समुदाय फैला हुआ है।
पण्डितजी एक कुशल पत्रकार हैं, और सहस्रों लेखोंके जनक है। वे सच्चे मार्गदर्शक है। मेरे ऊपर उनकी विशेष अनुकम्पा रही है। वे हमारे प्रेरणा स्रोत बने रहे हैं, यही मझ जैसे अनेक शिष्योंकी कामना है।
विद्यागुरुका नमन
डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य, मंत्री, विद्वत्परिषद्, सागर सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री दिगम्बर जैन विद्वानोंमें मूर्धन्य विद्वान् हैं । श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीके प्राचार्य अथवा प्राणाचार्य रहने के कारण आप हजारों विद्वानों के गुरुत्वको प्राप्त हैं । वक्तृत्व और लेखन कलाके धनी पण्डितजी जिस समारोहमें पहुँच जाते हैं, वह गौरवशाली हो जाता है। हृदयके सरल और विद्यार्थियोंके बीच अपना समग्र जीवन बितानेवाले पण्डितजी विद्यार्थीका मानस परखने में अत्यन्त निपुण हैं । जो विद्यार्थी आपकी अन्तःपरीक्षामें उत्तीर्ण हो जाता है, आप उसके जीवन निर्माणमें पिताका काम करते हैं । सदा उसके शिर पर वरदहस्त रखते हैं ।
बेजोड समीक्षक-मैंने देखा है कि अध्यापनके अतिरिक्त समयमें आप निरन्तर अध्ययनरत रहते हैं । जहाँ आप मौलिक साहित्यके निर्माता हैं, वहाँ अन्य साहित्यकारोंके द्वारा लिखित साहित्यके बेजोड़ समीक्षक भी हैं । देखा जाता है कि कितने ही समीक्षक विद्वान् ग्रन्थकी साज-सज्जा देख तथा प्रस्तावनाके दो चार पन्ने पलटकर अपना समीक्षा लेख लिख देते हैं। परन्तु आप सम्पूर्ण ग्रन्थका अध्ययन किये विना किसी ग्रन्थकी समालोचना नहीं करते । समालोचना देरसे प्रकाशित हो, इसकी आप चिन्ता नहीं करते । समालोचना करते समय आप निजी लेखकोंका भी संकोच नहीं करते । जो बात उन्हें अनुचित दिखती है, उसका वे बराबर उल्लेख करते हैं। दूरस्थ लेखककी कृतिमें गण भी होते हैं और दोष भी। पण्डितजी अपने समीक्षा लेखमें दोनोंका उल्लेख करते हैं।
मुखर संपादक-जैन संदेशके आप सम्पादक हैं और आप उसके सम्पादकीय लेख इतनी निर्भयता और औचित्यको लेकर लिखते हैं कि विचारक पाठक आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता। भाषण देते समय यथार्थ बातको कहने में आप कभी पीछे नहीं हटते।
अध्ययनशील गवेषी-अपने शिष्यजनोंको किसी अच्छे काममें प्रोत्साहित करने तथा उन्हें आगे बढ़ानेका आप सदा ध्यान रखते हैं । वे सफल पत्रकार, टीकाकार और मौलिक ग्रन्थनिर्माता हैं । प्राभृत संग्रह, न्यायकुमुदचन्द्रोदय, सागार धर्मामृत, अनागारधर्मामत, उपासकाचार तथा जीवकाण्ड आदिकी प्रस्तावनाएं पण्डितजीकी अध्ययनशीलताको प्रकट करती है और जैनधर्म तथा जैनसाहित्यका इतिहास १-२ भाग आपके गवेषणात्मक अध्ययनको अभिव्यक्त करते हैं। आपकी जैनधर्म रचना पुरस्कृत रचना है तथा सर्वत्र बड़े आदरके साथ पढ़ी जाती है।
डांटनेवाले गरु-मैं सन १९३० में स्यादाद महाविद्यालयमें छह माह रहा। उस समय मा आपसे राजवार्तिक पूर्वाद्ध पढ़नेका अवसर मिला। छात्रको अपना पाठ तैयार कर ही पण्डितजीके पास जाना पड़ता था। पाठ सुने बिना वे अगला पाठ नहीं पढ़ाते थे। यदि छात्रने कदाचित् अपना पाठ तैयार नहीं किया, तो उसपर वह डाँट पड़ती थी जिसे वह जीवन भर याद रखता था। संभवतः इसी प्रवृत्ति ने उनके शिष्योंको अध्ययनशील बनाया है। यही वृत्ति दोनोंकी ही प्रतिष्ठामें साधन बनी है।
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