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जिन सत्र भागः
'जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष तथा आदि, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, विदा होना पड़ा है। यहां बहुत मध्य, और अंतहीन देखता है, निर्विकल्प देखता है, वही समग्र | राग की जड़ें मत फैलाओ। यहां ऐसे रहो जैसे कोई अतिथिशाला जिन-शासन को देखता है।'
| में ठहरता है। विश्रामगृह में रुकता है। यहां बहत मोह के संबंध जिसने आत्मा को देख लिया, उसने महावीर के पूरे शास्त्र को |
| मत बनाओ। अन्यथा जाना कठिन हो जाएगा। और अगर न जा देख लिया। यह बात थोड़ी सुनो।
सके, तो वापस-वापस फेंक दिये जाओगे। मोह के बंधन ही 'जे पस्सदि अप्पाणं।' जिसने अपने को देख लिया। तुम्हें खींच लाएंगे। जे पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणन्नमविसेसं।
मैंने सुना है...पढ़ता था मैं एक ईसाई फकीर का जीवन। वह अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं।।
पहाड़ों में किसी गुफा की तलाश कर रहा था, एकांत-साधना के उसने सारा जिन-शास्त्र देख लिया, जिसने स्वयं को देख लिए। एक गुफा के पास पहुंचा तो देखकर चकित हो गया। लिया। ऐसी सीधी-साफ, ऐसी दो-टूक बात किसने कही है! वहां उसने एक फकीर को देखा, जिसने अपने को गुफा के भीतर
हैं। तुम जैन-शास्त्रों में बैठकर सिर मत | लोहे की जंजीरों से बांध रखा था। उसने पूछा, मैंने बहुत तरह के पचाते रहना। उतरो अपने में। महावीर कहते हैं, एक ही शास्त्र साधक देखे, तुम यह क्या किये हो? यह तुमने खुद जंजीरें है पढ़ने योग्य, वह स्वयं की चेतना है। एक ही जगत है प्रवेश बांधीं, कि कोई तुम्हें बांध गया। उसने कहा, मैंने ही बांधी हैं। योग्य, एक ही मंदिर है जाने योग्य, वह स्वयं की आत्मा है। किसलिए बांधीं? तो उसने कहा, इस डर से कि कहीं किसी 'जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, देह-कर्मातीत जानता है।' देह कमजोर क्षण में संसार में वापस न लौट जाऊं। ये जंजीरें मुझे और कर्म, इन दो के जो अपने को पार देख लेता है, वही आत्मा जाने नहीं देतीं। ठोंक दी हैं दीवाल से. इनके खोलने का कोई को जानता है। 'अनन्या' और जो जानता है कि बस मेरा शद्ध उपाय नहीं। होना ही, शुद्धतम साक्षीमात्र ही स्वरूप है, स्वभाव है। 'आदि, मगर यह भी कोई संसार से मुक्ति हई? अगर लोहे की जंजीरों मध्य, अंतहीन।' न तो मेरा कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है. न | के कारण किसी गुफा में पड़े रहे, तो यह कोई संसार से मक्ति कोई मध्य है। मैं शाश्वत हूं। 'अविशेष।' ऐसी बात को जो हुई? यह नये तरह का बंधन हुआ। यह मोक्ष न हुआ। बोध से बिलकुल जीवन का सामान्य स्वभाव अनुभव करता है, कोई | मुक्ति होती है। बोध का अर्थ है, जहां से जाना है, वहां से जा ही विशेष बात नहीं है यह, यह स्वाभाविक है, यह आत्मा का चुके। जहां से जाना है, वहां घर क्या बसाना। जहां से जाना ही गुणधर्म है, ऐसा जो देख लेता है, 'निर्विकल्प देखता है।' होगा, वहां जड़ें क्या फैलाना। थोड़ी देर का विश्राम है, ठीक है उसकी आंखों में फिर विकल्प के बादल नहीं होते। विचार के कर लेंगे। लेकिन जाने के वक्त लौटकर न देखेंगे। बादल नहीं होते। 'वही समग्ररूप से जिन-शासन को देखता अभी फिर दर्द टपकेगा मेरी आवाज से आखिर है।' हम तो उलझे हैं बहुत छोटी बातों में। हमने तो बड़े अभी हंस रहे हो, अभी रोओगे। तो जब रोना ही है, तो हंसी में छोटे-छोटे पड़ाव बना लिये, उन्हीं को हम मंजिल समझ रहे हैं।। बहुत अर्थ नहीं रह गया। मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज़ से आखिर
अभी फिर आग उठेगी शिकस्ता साज से आखिर अभी फिर दर्द टपकेगा मेरी आवाज से आखिर
अभी मेरा साज टूट जाएगा, अभी वीणा टूटी पड़ी होगी, अभी अभी फिर आग उठेगी शिकस्ता साज से आखिर
चिता जलेगी। मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज़ से आखिर
मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज़ से आखिर जहां से जाना है, वहां बहुत मत पकड़ो।
यह तेरी महफिल बड़ी प्यारी है, लेकिन जाना है। जाना मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज से आखिर
पड़ेगा। तो यहां ऐसे रहना जैसे कमल रहता है जल में। रहना, यह महफिल सदा नहीं चलेगी। सपने जैसी है। यहां से उठना | लेकिन जल को छूने मत देना। जल में ही रहना और जल से ही होगा। यहां से सभी को उठना पड़ा है। एक न एक दिन, अलिप्त रहना।
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