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नहीं। मंदिर में जाकर बैठ गये, शांति है। मंदिर की है, तुम्हारी नहीं। इस शांति से तुम्हारे भीतर का उथल-पुथल, इस शांति से तुम्हारे भीतर का रुदन, इस शांति से तुम्हारे भीतर का कोलाहल समाप्त न होगा।
समाहित क्यों नहीं होती यहां मेरे हृदय की क्रांति ? क्यों नहीं अंतर- गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य वासी अथिर यायावर, अचिर में चिर प्रवासी
नहीं रुकता, चाह कर — स्वीकार कर — विश्रांति ? मान कर भी, सभी ईप्सा, सभी कांक्षा
जगत की उपलब्धियां सब हैं लुभानी भ्रांति ।
जानते तो तुम भी हो। लेकिन जानना तुम्हारा मानने का है। मानकर भी सभी ईप्सा, सभी कांक्षा
जगत की उपलब्धियां सब हैं लुभानी भ्रांति कुछ हल नहीं होता। मानकर कहीं हल हुआ है? सुनकर मान लिया, कहीं हल हुआ ? जानना होगा। ज्ञान! फिर बनेगा ध्यान। फिर ध्यान से होगी निर्जरा। फिर निर्जरा से मोक्ष।
इतना ही फर्क है परमात्मा में और आदमी में कि आदमी व्यर्थ के बोझ से ढंका है, जैसे हीरा कंकड़ों में दबा, कि सोना मिट्टी में पड़ा। आग से गुजर जाए, निखर जाए, कि आदमी परमात्मा है। सरापा आरजू होने ने बंदा कर दिया हमको वरना हम खुदा थे गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते
अगर हृदय में आकांक्षा, वासना का बीज न होता, चाह न होती, तो हम स्वयं ईश्वर थे। फिर से चाह जल जाए, हम फिर ईश्वर हो जाएं। चाह हमें उतार लायी जमीन पर । लंगर की तरह चाह ने हमें जमीन से बांधा है। ज्ञान की अग्नि में चाह जल जाती है । ठीक कहते हैं महावीर - 'जैसे प्रचंड अग्नि में तृण - राशि | जल जाती है, ऐसा ही बीज चाह का, तृष्णा का जल जाता है।' जल्दी करो, क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं । जलाओ इस आग को। यह सोना कब से तुम्हारी प्रतीक्षा करता है ।
जिसलिए मैं पंख लाया था,
वह काम न इनसे ले पाया।
इन पंखों का देनेवाला,
नाराज न होगा क्या मुझ पर ?
पंखों से बांध लिये पत्थर !
फैलाओ पंखों को। फिर से तौलो हवाओं पर । फिर उड़ो
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आकाश की तरफ। जिसलिए पंख मैं लाया था,
वह काम न इनसे ले पाया। इन पंखों का देनेवाला,
नाराज न होगा क्या मुझ पर ? पंखों से बांध लिये पत्थर !
गरु है मन का मीत
गिराओ पत्थर । लेकिन दूसरों की कही हुई बातों से यह न होगा। सुना बहुत कहते लोग, जगत माया है । छूटती तो नहीं ! सुना बहुत, लोग कहते हैं क्रोध आग है; मिटता तो नहीं ! सुना बहुत, काम पाप है; जाता तो नहीं! क्या इतने से साफ नहीं हो रहा कि सुना हुआ जो है, पढ़ा हुआ जो है; शास्त्र से, संस्कार से जो मिला है, वह ज्ञान नहीं! प्रकाश की बातें हैं, प्रकाश नहीं । पाकशास्त्र है, भोजन नहीं। जल का सूत्र होगा - एच टू ओ-लेकिन एच टू ओ से कहीं प्यास किसी की बुझी है!
कागज पर किसी को एच टू ओ लिखकर दे दो, वह प्यासा तड़फ रहा है - वह फेंक देगा कागज, वह कहेगा इसे क्या करेंगे ? शास्त्र का क्या करेंगे? होगा ठीक तुम्हारा सूत्र, मुझे जल चाहिए, सूत्र नहीं। लेकिन जल शास्त्र से मिल भी नहीं सकता। स्वयं से ही मिल सकता है। और जब तक वैसा जलस्रोत तुम अपने भीतर न खोज लो, प्यासे तड़फते, जीवन के नाम पर क्षण-क्षण मरते ही तुम रहोगे।
मन में मिलन की आस है,
दृग में दरस की प्यास है, पर ढूंढता फिरता जिसे, उसका पता मिलता नहीं। झूठे बनी धरती बड़ी, झूठे बृहत आकाश हैं;
मिलती नहीं जग में कहीं, प्रतिमा हृदय के गान की ।
किसके सामने नाचूं ? किसके सामने गीत गाऊं ? कहां चढ़ाऊं जीवन का अर्ध्य ? कहां चढ़ाऊं जीवन का नैवेद्य ? कहां है वह द्वार, जो मेरे घर का है? जो वस्तुतः मेरे घर का द्वार है। मन में मिलन की आस है,
दृग में दरस की प्यास है,
पर ढूंढता फिरता जिसे,
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