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है वह थोड़े ही! जो मौन में प्रतीत होता है वही । जिसे तुम देख हो वह तो केवल रूप है, आकार है। जो उस रूप और आकर में छिपा निराकार है ।
अज्ञात वय-कुल- शील मेरे मीत!
ऐसी मित्रता बांधनी बड़ी मुश्किल है। क्योंकि न कुल का पता, न वय का पता । कहां ले जाओगे ? कहां ले चले? कुछ भी पता नहीं । अज्ञात की यात्रा है।
जिसे मैंने किया याद तुम, जिससे बंधी मेरी प्रीति
और यह बंधन प्रेम का है। यह तर्क का नहीं है। तुम अगर मेरे पास हो और किसी भांति मुझसे बंध गए हो, तो यह बंधन हृदय का है। यह अकारण है। तुम्हें प्रेम हो गया। और जब तक किसी प्रेम न हो जाए, तब तक पास होने की कोई सुविधा नहीं है। तुम, जिसे मैंने किया याद
जिससे बंधी मेरी प्रीति
कौन तुम अज्ञात वय-कुल- शील मेरे मीत?
कर्म की बाधा नहीं तुम
तुम नहीं प्रवृत्ति से उपरांत
सदगुरु तुम्हें प्रवृत्ति से उपरांत थोड़े ही करता है! सदगुरु तुम्हें तोड़ता थोड़े ही तुम्हारे संसार से ! तुम्हारे संसार में ही तुम्हें नए होने का ढंग देता है।
कर्म की बाधा नहीं तुम
सदगुरु तुम्हें यह थोड़े ही कहता है, कि छोड़ो-छाड़ो, भागो! भगोड़ा थोड़े ही बनाता! सदगुरु तुम्हें जगाता। वह कहता, ' नहीं, जागो ।
भागो
कर्म की बाधा नहीं तुम
तुम नहीं प्रवृत्ति से उपरांत
कब तुम्हारे हित थमा संघर्ष मेरा ?
रुका मेरा काम
तुम्हें धारे हृदय में
मैं खुले हाथों सदा दूंगा बाह्य का जो देय
न ही गिरने तक कहूंगा, तनिक ठहरूं क्योंकि मेरा चुक गया पाथेय
सदगुरु के साथ जाना एक अंतहीन संघर्ष पर जाना है। जहां धीरे-धीरे सब खो जाएगा । पाथेय भी खो जाएगा । कुछ भी न
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आज लहरों में निमंत्रण
ग। तुम भी खो जाओगे ।
और अंत तक अगर तुमने यह हिम्मत रखी, कि तुमने नहीं कहा कि रुको, ठहरो, यह मैं खोया जा रहा हूं, तो ही तुम पहुंच पाओगे। मिटकर ही कोई पहुंचता है। मरकर ही कोई पाता है।
इसलिए बहुत स्वाभाविक है कि लोग डरते हैं। डरने के कारण अपने आसपास विचार की बागुड़ खड़ी करते हैं। डरने के कारण मुर्दा मंदिरों में, मस्जिदों में पूजा कर लेते हैं। ऐसे मन को समझा लेते हैं कि हम भी धार्मिक हैं। शास्त्र को लेकर बैठ जाते हैं। पढ़ लेते हैं, गुनगुना लेते हैं, पाठ कर लेते हैं। ऐसे मन को भ्रांति दे लेते हैं कि हम कुछ ऐसे ही जीवन नहीं गंवा रहे हैं। गीता पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते हैं, जिन सूत्र पढ़ते हैं ।
लेकिन तुम जो पढ़ोगे वह तुम्हारा ही अर्थ होगा। महावीर का अर्थ तो तुम महावीर होकर ही जान सकते हो। और कोई उपाय नहीं ! क्योंकि शब्द तो बाहर से आ जाते हैं। अर्थ कहां से लाओगे ? अर्थ तो भीतर से आएगा।
इसीलिए तो एक तरफ कहते हो, जिन शासन ही सत्य है । और दूसरी तरफ कहे चले जाते हो, कि और सब मिथ्या है। जिन - शासन का अर्थ ही यही होता है कि यहां पूर्ण मिथ्या कोई भी नहीं ! मिथ्या में भी सत्य है छिपा । तुम मिथ्या - मिथ्या को छोड़ देना। असार असार को त्याग देना, सार-सार को ग्रहण कर लेना। हंसा तो मोती चुगै-चुन लेना मोती । कंकड़-पत्थर तुम्हें क्या लेना-देना?
दूसरा प्रश्न : पिछले वर्ष के भीतर आश्रम से बाहर के एक वातावरण में काफी परिवर्तन हुआ है। पहले जो लोग आपके विरोध में बोलते थे, अब वैसा बोलने में न केवल हिचकते हैं बल्कि आपमें उत्सुक भी होने लगे हैं। और चाहते हैं कि कैसे आपके सान्निध्य का लाभ लें? क्या यह संक्रमण की अवस्था है ? और कृपया उपदेश दें कि हम संन्यासियों को इस अवस्था में क्या करना उचित है ?
तुम उनकी तरफ ध्यान ही मत देना। तुम उन्हें टालना । वे कहें कि ले चलो, तुम कहना बड़ा कठिन है। तुम जल्दी मत करना | उन्हें आने दो अपने से ।
ऐसा ही होता है। तीन सीढ़ियां आदमी का चित्त पूरी करता है।
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