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जिन सूत्र भाग : 2
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सभी चीजें अपने मूल उदगम पर बड़ी छोटी होती हैं, तुम्हारी तो सिर्फ चलने का ही काम करे, बस। तुम कुछ और हजार बातें सीमा के भीतर होती हैं।
न सोचो। तो क्रोध को वहां देखो, जहां से क्रोध उठता है। काम को वहां रास्ते पर तुम चल रहे हो, हजार बातें सोच रहे हो। तो चलना देखो जहां से काम उठता है। झगड़े का सवाल नहीं है। एक तो मछित होगा ही। मन हजार जग वैज्ञानिक अवलोकन की बात है।
सकता है। एक ही जगह हो सकता है। भोजन तुम कर रहे हो, 'यह जिनवचन है कि संवरहीन मुनि को केवल तप करने से उस वक्त बैठे तुम दुकान पर विचार कर रहे हो। बैठे घर में, मोक्ष नहीं मिलता, जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर भोजन कर रहे, विचार चल रहा बाजार का। तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता।'
मैंने सुना है, एक आदमी एक साधु के पास जाता था। बड़ा तो पहली चीज, मूलस्रोत की पहचान। उस मूलस्रोत को एक भक्तिभाव में रस लेता था, भजन-कीर्तन करता था। और जो ही नाम दिया जा सकता है, वह है मूर्छा। महावीर का शब्द है लोग भी भजन-कीर्तन इत्यादि करने लगते हैं, वे चाहते हैं सभी प्रमाद-सोए-सोए जीना।
को करवा दें। हिंसा का भाव है वह। क्योंकि तुम कौन हो सभी हम जी तो जरूर रहे हैं, लेकिन हमारा जीना बड़ी तंद्रा से भरा |
| को करवाने वाले? वह अपनी पत्नी को भी लगाना चाहता था। हुआ है। कुछ ठीक पक्का पता नहीं है क्यों जी रहे हैं। कुछ दुनिया में सबसे कठिन काम वही है। पति को अगर पक्का पता नहीं कौन हैं। कुछ पक्का पता नहीं कहां जा रहे हैं, भजन-कीर्तन करना है, पत्नी निश्चित रूप से भजन-कीर्तन नहीं कहां से आ रहे हैं। धक्कमधुक्की है, चले जा रहे हैं। करेगी। दो में से एक ही करता है। दोनों...आकस्मिक संयोग कभी भीड़ में देखा? कोई भीड़ का रेला आ रहा हो, लोग चले | हो जाए, बात अलग। ऐसा होता नहीं।
ले जा रहे हो। रुकना भी मश्किल क्योंकि तो वह पत्नी को बडी खींचतान मचाता था. बडा शोरगल भीड़ धक्के दे रही है। तुम्हें यह पक्का पता भी नहीं कहां जा रहे, मचाता था कि चल, धर्म कर कुछ। समय खो रही है। जीवन जा कहां से ले जाए जा रहे, यह भीड़ कहां जा रही है। लेकिन यह रहा है। लेकिन पत्नी अपनी जिद्द पर थी। उसने अपने गुरु को सोचकर कि सब जा रहे हैं तो ठीक ही जा रहे होंगे, आदमी कहा। गुरु ने कहा, मैं आऊंगा। मैं तेरी पत्नी को समझाऊंगा। चलता चला जाता है। हम पैदा भीड़ में होते हैं, और भीड़ में ही कल सुबह आता हूं पांच बजे। मर जाते हैं। और हमें पता ही नहीं चल पाता हमें जाना कहां था, तो पति तो उठ जाता था चार बजे ही से। जोर से शोरगुल होना क्या था। क्या होने को हम पैदा हुए थे। हमारी नियति क्या मचाता था। उसको ही वह भजन-कीर्तन कहता था। हालांकि थी। हमारा स्वभाव क्या था।
मोहल्ला भर उसको गाली देता था। बच्चे घर के गाली देते थे। यह मूर्छा तोड़ना पहली बात है। कैसे टूटे यह मूर्छा? जो मगर धार्मिक आदमी जब इस तरह के काम करता है तो कोई भी करो, महावीर कहते हैं; विवेकपूर्वक करो।
रुकावट भी नहीं डाल सकता। जैन मनि विवेक का बड़ा गलत अर्थ करते हैं। जब तम जैन | वह जब आया साध, उसने द्वार पर दस्तक दी तो पत्नी बहारी मुनि से पूछोगे कि महावीर जब कहते हैं ‘जयं चरे, जयं लगा रही थी। उसने पत्नी से कहा कि देखो, तुम्हारा पति कितना चिट्ठे'—विवेक से उठे, विवेक से बैठे, तो उनका मतलब क्या ध्यान में लीन है। उसकी पत्नी ने कहा, छोड़ो बकवास! वह इस है? तो जैन मुनि कहेगा, विवेक से बैठने का मतलब जमीन समय बाजार गया हुआ है और एक जूते की दुकान पर जूते खरीद झाड़कर बैठें। कोई चींटी न मर जाए। पानी छानकर पीएं कि रहा है। कोई हिंसा न हो जाए। यह विवेक का अर्थ!
वह पति तो अंदर बैठा था। उसने यह सुना तो वह बड़ा हैरान यह विवेक का अर्थ नहीं है। विवेक का अर्थ है. बैठने की हआ। उसने कहा हह हो गई। झठ की भी एक सीमा होती है। क्रिया में मूर्छा न हो। जब तुम बैठो तो सिर्फ बैठो। उस वक्त पांच बजे रात न तो दुकानें खुली, और मैं इधर अपने ध्यान में तुम्हारा चैतन्य सिर्फ बैठने का ही काम करे, बस। जब तुम चलो लगा हूं। अब यह दिखता है कि यह सोचकर कि मैं बीच में उठ
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