Book Title: Jina Sutra Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 617
________________ इस तरह गुजरी तेरी याद में हरेक सुबह पीर जो कोई सही तो हो मगर सही न गई लगता है कह भी दिया और लगता है कह भी न पाए। लगता है हो भी गया और लगता है हो भी न पाया। ऐसी विडंबना साधारण प्रेम के साथ घट जाती है। तो परमात्मा की तो हम बात ही छोड़ दें। वह तो आत्यंतिक घटना है, आखिरी घटना है । उसको बताने के लिए कोई शब्द आदमी की भाषा में नहीं है । उसको बताने के लिए कोई विचार आदमी के पास नहीं है। उसकी तरफ इशारा करने में हमारी कोई अंगुली काम नहीं आती । हमारी अंगुली बड़ी स्थूल और वह बड़ा सूक्ष्म । स्थूल को स्थूल से दिशा-निर्देश किया जा सकता स्थूल को स्थूल से कहा जा सकता है। सूक्ष्म को कैसे स्थूल से कहें? वह बड़ा जीवंत और हमारे सब शब्द मुर्दा । इसलिए जिन्होंने जाना वे मौन रहे। महावीर ने तो अपने संन्यासी को मुनि नाम इसीलिए दिया कि जानोगे - बस चुप! मुनि कहा इसीलिए कि मौन घटेगा । मौन से ही उसे जानोगे, जानकर मौन से ही उसे कह पाओगे। Jain Education International 2010_03 त्रिगुप्ति और मुक्ति अतीत है। ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने । वह मन के बहुत पार है। वह इतने पार है मन के कि और सारी बातें तो छोड़ ही दो, आध्यात्मिक व्यक्ति में जो ओज प्रगट होता है, वह ओज भी उस जगह तक नहीं पहुंचता। वह ओज भी बाहर-बाहर रह जाता है। वहां पहुंचते-पहुंचते ओज भी खो जाता है। क्योंकि ओज के लिए भी अंधकार का सहारा चाहिए। ओज के प्रगट होने के लिए अंधकार की पृष्ठभूमि चाहिए। इसलिए महावीर कहते हैं, 'साथ ही समस्त मल- कलंक से रहित होने से वहां ओज भी नहीं है।' अब यह बड़ी महत्वपूर्ण बात वे कह रहे हैं। अत्यंत असाधारण बात वे कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, प्रकाश को देखने के लिए भी अंधेरे की पृष्ठभूमि चाहिए। जब तुम दीया जलाते हो तो तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ती है। तुम सोचते हो रोशनी के कारण, तो गलती है तुम्हारा खयाल । वह जो चारों तरफ अंधेरा घिरा है, उसकी दीवाल कारण। थोड़ा सोचो कि दुनिया से अंधेरा मिट जाए, फिर तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ेगी ? फिर कैसे दिखाई पड़ेगी ? फिर नहीं दिखाई पड़ेगी। इसका यह अर्थ नहीं है कि महावीर ने कुछ कहा नहीं। बहुत कहा, लेकिन उस सारे कहने से भी बात कही न गई। शब्द की पोशाक पहनाई न गई। लाख तरह से उपाय किया होगा । इधर से हारे तो उधर से किया होगा, उधर से हारे तो और कहीं से किया होगा। इस दरवाजे से प्रवेश न हो सका तो दूसरे दरवाजे पर खटखटाया होगा। लेकिन अंतिम निर्णय में यह कहा कि वह मोक्ष कुछ ऐसा है कि कहा नहीं जा सकता। तुम्हें भी अनुभव हो जाए, बस ऐसी शुभाकांक्षा की जा सकती है । या तुम हाथ देने को राजी हो जाओ हाथ में तो तुम्हें भी ले जाया जा सकता है। सदगुरु का अर्थ यही है - जो तुम्हें ले जाए। सत्संग का अर्थ यही है, जहां तुम किसी और के हाथ में अपना हाथ देने को तैयार हो जाओ। 'मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन नहीं है...।' सव्वे सरा नियति तक्का जत्थ न विज्जइ । और तर्क से उसे कहा नहीं जा सकता...। तक्का जत्थ न विज्जइ । तुमने कभी खयाल किया ? जब स्वास्थ्य परिपूर्ण होता है तो बिलकुल पता नहीं चलता। थोड़ी बीमारी रहे तो ही पता चलता है। पैर में दर्द है तो शरीर का पता चलता है। सिर में दर्द है तो मई तत्थ न गाहिया...। वहां मन का कोई व्यापार ही नहीं रह जाता। मन के पार है, मन सिर का पता चलता है। जिस आदमी ने सिर का दर्द नहीं जाना अभी मैं बोलता हूं, तुम्हें सुनाई पड़ता है क्योंकि बोलने के आसपास शून्य भी छाया हुआ है। अगर शून्य मिट जाए तो बोलना संभव न रहे। अगर बोलना मिट जाए तो शून्य का अनुभव होना मुश्किल हो जाए। शोरगुल के कारण ही शांति का अनुभव होता है, खयाल रखना। अगर बिलकुल सन्नाटा हो, कोई आवाज न होती हो तो शांति का पता ही न चलेगा। पता चलने के लिए विपरीत चाहिए, द्वंद्व चाहिए। महावीर कहते हैं, वह इतना आत्यंतिक एक है, वहां कोई दो नहीं बचते; कि वहां ओज तक का पता नहीं चलता। वहां इतनी रोशनी है कि रोशनी का पता नहीं चलता । अंधेरा है ही नहीं । वहां इतनी शुद्धता है कि शुद्धता का भी पता नहीं चलता । क्योंकि शुद्धता का पता होने के लिए कुछ अशुद्धि, कुछ मल - कलंक शेष रह जाना चाहिए। For Private & Personal Use Only 607 www.jainelibrary.org

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