Book Title: Jina Sutra Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 616
________________ जिन सूत्र भागः2 अपने घर में पहुंच जाते हैं, ठीक अंतर्गृह में, तो वहां शुद्ध चेतना | प्रेम, मोक्ष, परमात्मा तो कभी-कभी घटता है, इसलिए सिद्ध बचती है, कोई भी और नहीं बचतान शरीर, न मन, न भाव। नहीं हो पाता; चलो। लेकिन इतने लोग तो प्रेम करते हैं—इतने इस शुद्ध अवस्था में मुक्ति के पहले दर्शन होते हैं। लैला, इतने मजनू, इतने शीरी, इतने फरिहाद! फिर भी कुछ कह तो महावीर कहते हैं, त्रिगुप्ति के द्वारा ऐसी मुक्ति की दशा का नहीं पाता कोई। | अनुभव तुम्हें होगा, वही ज्ञान है। वहां तर्क का प्रवेश नहीं, कल मैं एक गीत पढ़ता थाः इसलिए कोई मोक्ष को सिद्ध नहीं कर सकता कि है। न कोई | कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई सिद्ध कर सकता कि नहीं है। क्योंकि जो चीज सिद्ध ही नहीं की दर्द को शब्द की पोशाक पहनाई न गई जा सकती तर्क से कि है, उसको असिद्ध भी नहीं किया जा | और फिर खत्म हुई ऐसे कहानी अपनी सकता। सिर्फ अनुभव से जो लेगा स्वाद, वही जानेगा-गूंगे उनसे सुनते न बनी हमसे सुनाई न गई का गुड़। जो लेगा स्वाद, वह जानेगा कि है। लेकिन वह भी रही हरेक जगह सांस पर रही न गई तुम्हें सिद्ध नहीं कर पाएगा। बात ऐसी थी, कही तो मगर कही न गई अगर तुम गूंगे से पूछो कि तुझे स्वाद मिला, बोल! तो वह इस तरह गुजरी तेरी याद में हरेक सुबह तुम्हारा हाथ खींचेगा। उस तरफ जहां उसको स्वाद मिला। तुम पीर जो कोई सही तो हो मगर सही न गई भी आ जाओ और तुम भी चख लो गुड़। प्रेम नहीं कहते बनता। प्रेम को शब्द की पोशाक पहनाते नहीं यही महावीर-बुद्ध, यही दुनिया के सारे सत्पुरुष कर रहे हैं। | बनती। खींच रहे हैं हाथ तुम्हारा कि आओ! हम जहां गए, वहां खूब कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई पाया। तुम भी थोड़ा स्वाद लो। कौन प्रेमी नहीं कहना चाहा है? तुमने कभी प्रेम किया किसी तम कहते हो. पहले सिद्ध करो. फिर हम आएंगे। छोडो को? तब तम्हें अडचन आती है. कैसे कहें कि मझे प्रेम है? हाथ। ऐसे हाथ मत खींचो। हम ऐसे बुद्धिहीन नहीं हैं कि हर कहो, शब्द बड़े छोटे मालूम पड़ते हैं। जो है, उसके मुकाबले किसी के साथ हो लें। तुम पहले सिद्ध कर दो कि परमात्मा है, | ना-कुछ मालूम पड़ते हैं। लाख सिर पटको, कहो कि मुझे प्रेम है मोक्ष है, आत्मा है, तो हम आने को तैयार हैं। हम तर्कशील तो भी तुम्हें लगता है, कह कहां पाए ? व्यक्ति हैं। हम सोच-विचार कर चलते हैं। हम अंधविश्वासी कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई नहीं हैं। प्रेमी कितना सिर पटकते हैं, कितने उपाय करते हैं। चलो फूल तो फिर तुम कभी भी न जा सकोगे। तो तुम्हें पता नहीं तुमने का गुलदस्ता खरीद लाओ, कि हीरे-जवाहरात के हार ले किससे अपना हाथ छुड़ा लिया। तुमने उससे अपना हाथ छुड़ा | आओ। मगर हीरे-जवाहरात से भी नहीं कहा जाता। फूल भी लिया जो तुम्हें तुम तक पहुंचा देता। तुमने उससे अपना हाथ नहीं कह पाते। कुछ है, जो प्रगट नहीं हो पाता। छुड़ा लिया जो तुम्हारे लिए जीवन में सौभाग्य की किरण होकर दर्द को शब्द की पोशाक पहनाई न गई आया था। और तुमने जिस बात के नाम पर हाथ छुड़ा लिया उस और फिर खत्म हई ऐसे कहानी अपनी कूड़ा-कर्कट को तुम मूल्य दे रहे हो तर्क। सभी प्रेमियों की ऐसे ही कहानी खत्म होती है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसके लिए कोई तर्क नहीं है। | उनसे सुनते न बनी हमसे सुनाई न गई प्रेम के लिए कोई सिद्ध कर सका कि है? प्रेम जैसी सामान्य रही हरेक जगह सांस पर रही न गई जीवन की अनुभव की घटना भी सिद्ध नहीं होती। सबको | बात ऐसी थी, कही तो मगर कही न गई अनुभव होती है तो भी सिद्ध नहीं होती। इस जमीन पर करोड़ों कह भी देते हैं तो भी रह जाती है बात। कह भी देते हैं तो भी लोग प्रेम करते हैं लेकिन फिर भी सिद्ध नहीं होता। खैर महावीर लगता है कहां कही? कह भी देते हैं तो भी मन तड़फता रह जाता और बुद्ध तो कभी-कभी अपवाद रूप होते हैं। यह आत्यंतिक है, कह न पाए। 606 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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