Book Title: Jina Sutra Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 633
________________ एक दीप से कोटि दीप हों हो, अपना प्रिस्क्रिप्शन दिखाते हो, दवा ली, चल पड़े। तुम यह | यह तो अच्छा हुआ कि दोनों का कहीं मिलना नहीं होता बीच नहीं कहते कि यहां लाखों दवाएं रखी हैं। तुम यह नहीं कहते कि में। नहीं तो गंगा कहेगी, पागल हुई? पश्चिम में कहीं सागर एक ही दवा से क्या होगा? सब दवाएं दे दो। तुम अपना रोग है? सदा से पूरब में रहा। हम सदा पूरब में मिलते रहे सागर देख लेते हो, अपनी औषधि लेकर अपने घर चले आते हो। तुम से। तेरा दिमाग फिर गया नर्मदा? लौट आ। मेरे साथ हो ले। चिंता में नहीं पड़ते कि केमिस्ट की दुकान पर लाखों दवाएं रखी हमारे संप्रदाय में सम्मिलित हो जा।। हैं और हम एक ही लिए जा रहे हैं? तुम लोभ में नहीं पड़ते। और नर्मदा कहेगी, तू पागल हो गई? हम सदा से गिरते रहे मैं तुम्हारे सामने सब द्वार खोल रहा हूं। तुम्हें जो द्वार रुच जाए, | सागर में। यही हमारा ढंग रहा। तुझे कुछ भ्रांति है। पूरब में कहीं तुम उससे प्रवेश कर जाना। अब तुम यह कोशिश मत करना कि सागर है? पूरब से तो हम आते हैं, पश्चिम को हम जाते हैं। सभी द्वारों से तुम प्रवेश करो; अन्यथा तुम पगला जाओगे। पूरब में सागर होता तो हम आते ही क्यों पूरब से? पूरब में कुछ संकीर्ण तुम मेरे पास न हो सकोगे, लेकिन अगर लोभी हुए तो भी नहीं है। भटक जाओगी। पागल हो जाओगे। लेकिन वह भी मेरे कारण नहीं, अपने लोभ नदियां आपस में बात नहीं करतीं, अच्छा है। दोनों सागर के कारण। | पहुंच जाती हैं। सभी नदियां अंततः सागर पहुंच जाती हैं। मैं तो तुम्हें सारा दृश्य दे रहा हूं, पूरा नक्शा दे रहा हूं दुनिया ऐसा ही सभी चेतनाएं अंततः परमात्मा में पहुंच जाती हैं। तुम का। फिर तुम्हें जो तुम्हारे भीतर धुन बजा देता हो, उसे पकड़ अपना मार्ग पकड़ लो और ध्यानपूर्वक, स्मरणपूर्वक, उस पर लो। मेरे लिए रास्ते मूल्यवान नहीं हैं, तुम मूल्यवान हो। चलो। दूसरों को उनके मार्ग पर चलने दो। आशीर्वाद दो उन्हें विधियों का कोई मूल्य नहीं है, व्यक्तियों का मूल्य है। तुम्हें जो कि वे भी पहुंचे। प्रार्थना करो उनके लिए कि वे भी पहुंचे। इससे विधि रुच जाए, जिस विधि से तुम्हारे भीतर कमल खिलने लगे, क्या फर्क पड़ता है कैसे पहुंचते हैं, कौन-सा वाहन लेते हैं! | वही तुम्हारा मार्ग हो गया। | पहुंचें। और उनसे आशीर्वाद मांगो अपने लिए कि हम भी पहुंच लेकिन मेरे पास एक बात तम्हें जरूर समझ में आ जाएगी कि जाएं, जो हमने मार्ग चुना है उससे। तो दुनिया में एक सदभाव | जो तुम्हारे लिए मार्ग है, जरूरी नहीं है सबके लिए हो। जो तुम्हारे पैदा हो। हो चुका संप्रदाय बहुत, अब सदभाव चाहिए। | लिए मार्ग नहीं है, हो सकता है दूसरे के लिए हो। क्योंकि तुम यहां मेरे पास देखोगे भक्ति से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां चौथा प्रश्नः त्वमेव माता च पिता त्वमेव देखोगे ध्यान से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां मुसलमानों को त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव प्रभु की तरफ बढ़ते देखोगे, जैनों को, हिंदुओं को, ईसाइयों को, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव यहूदियों को। त्वमेव सर्वं मम देव देव तो एक बात तो यहां तुम्हें सीख ही लेनी पड़ेगी कि सब पहुंच -सरोज के वंदन। जाते हैं। पहुंचने की गहरी आकांक्षा हो, अभीप्सा हो। सब पहुंच जाते हैं। सब मार्गों से पहुंच जाते हैं। सभी मार्ग उस की तरफ ले जो मैं अभी कह रहा था। कोई ध्यान से खिल जाता, कोई प्रेम जाते हैं। उस एक ही यात्रा चल रही है। वह एक ही तीर्थ है। से खिल जाता। सभी यात्राएं वहीं पहुंच जाती हैं। सरोज का प्रश्न एक भक्त का प्रश्न है। भक्त के पास प्रश्न भी लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तुम सभी मार्गों पर दौड़ने नहीं है, निवेदन है। शायद निवेदन कहना भी ठीक नहीं, लगो। तब तुम पगला जाओगे। तब तुम कहीं न पहुंचोगे। अहोभाव की अभिव्यक्ति है। पूछने को कुछ नहीं है, धन्यवाद चलना तो एक ही मार्ग पर होगा। देने को कुछ है। देखा ? गंगा बहती है पूरब की तरफ, नर्मदा बहती पश्चिम की ध्यान का मार्गी पूछता है, क्या करें। प्रेम का मार्गी धन्यवाद तरफ; दोनों सागर पहुंच जाती हैं। देता है कि जो हुआ, वह बहुत है। और न हो तो चलेगा। जो हो 628 ___JainEducation International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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