Book Title: Jina Sutra Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 647
________________ याद घर बुलाने लगी जो शुरू होगा वह अंत होगा। जो बनेगा वह मिटेगा। जिसका में तुमने दुख मांग लिया। अक्सर लोग संसार से ऊबते भी हैं तो सृजन किया जाएगा उसका विध्वंस होगा। तुमने एक मकान उनके ऊबने का कारण गलत होता है। बनाया, उसी दिन तुमने एक खंडहर बनाने की तैयारी शुरू कर एक जैन मुनि मुझे मिलने आए, कोई पांच साल हुए। मैंने दी। खंडहर बनेगा। तुम जब भवन बना रहे हो तब तुम एक उनसे पूछा, आपने संसार क्यों छोड़ दिया, उन्होंने कहा, संसार खंडहर बना रहे हो। क्योंकि बनाने में ही गिरने की शुरुआत हो में कुछ मिलता ही नहीं। कोई सार ही नहीं। गई। तुमने एक बच्चे को जन्म दिया, तुमने एक मौत को जन्म संसार में कुछ मिलता नहीं, कुछ सार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया। तुम जन्म के साथ मौत को दुनिया में ले आए। दिया? तो मिलने की आकांक्षा अब मोक्ष की तरफ लगा दी। नदियां दो-दो अपार, बहती हैं विपरीत छोर अब वहां मिलेगा। परमात्मा की तरफ लगा दी, आत्मा की तरफ कब तक मैं दोनों धाराओं में साथ बहूं लगा दी। लोभ गया नहीं, वासना गई नहीं, सिर्फ दिशा बदली। ओ मेरे सूत्रधार! और जहां वासना है वहां संसार है। नौकाएं दो भारी अलग-अलग दिशा में जातीं तो यह संन्यास संसार का अतिक्रमण न हुआ, संसार का ही कब तक मैं दोनों को साथ-साथ खेता रहूं फैलाव हुआ। अब यह आदमी नए लोभ में परेशान है। मैंने एक देह की पतवार! पूछा, मेरे पास किसलिए आए हो? वे कहने लगे, शांति नहीं -पतवार एक, नौकाएं दो विपरीत दिशाओं में जाती। मिलती। मैंने कहा, जिसने संसार छोड़ दिया–छोड़ते ही शांति दो-दो दरवाजे हैं अलग-अलग क्षितिजों में मिल जानी चाहिए। फिर छोड़ने के बाद अब बचा क्या है, जो कब तक मैं दोनों की देहरियां लांघा करूं अशांत करे? सांसारिक व्यक्ति कहता है मैं अशांत हूं, समझ में एक साथ! आता है। आप कहते हैं, अशांत हैं? तो फिर फर्क क्या हुआ? छोटी-सी मेरी कथा, छोटा-सा घटनाक्रम फिर इस बात को फिर से सोचें। संसार छूटा नहीं है। द्वंद्व हवा के भंवर-सा पलव्यापी यह इतिहास अभी मौजूद है। लाभ-हानि की दृष्टि अभी मौजूद है। मिलना टूटे हुए असंबद्ध टुकड़ों में बांट दिया तुमने चाहिए और नहीं मिलता है। जहां मिलना चाहिए का भाव ओ अदृश्य विरोधाभास! आया, वहां नहीं मिलता है, इसकी छाया भी पड़ी। जहां अपेक्षा जिसे हम संसार कहते हैं वह विरोधाभास है, और विरोधाभास आयी वहां विफलता हाथ लगी-लग ही गई; थोड़ी देर-अबेर से जो पार हो गया वही निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है। होगी। तुमने बीज तो बो दिए, फसल काटने में कितनी देर तो महावीर का पहला सूत्र हुआ ः विरोध के पार है निर्वाण। | लगेगी? अगर संन्यासी भी अशांत है, साधु-मुनि भी अशांत 'जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, | हैं, तो फिर भेद क्या करते हो सांसारिक में और साध और मनि वहीं निर्वाण है।' | में? दोनों अशांत हैं। जहां विरोध नहीं, द्वंद्व नहीं; जहां दो नहीं, दुई नहीं; जहां द्वैत | संसार में कुछ मिलता नहीं इसलिए संसार मत छोड़ना। संसार नहीं, जहां अद्वैत है, वहीं है निर्वाण। जहां एक ही बचता है, | के मांगने में भूल हो गई है। पाने में भूल नहीं हो रही है, मांगने में आत्यांतिक रूप से एक बचता है, वहीं है निर्वाण। जब तक | भूल हो गई है। भूल अपनी वासना में हो गई है, अपनी चाहत में तुम्हारे भीतर विरोध है, जब तक तुम दो की आकांक्षा करते, जब हो गई है, अपनी चाह में हो गई है। वहीं हमने द्वंद्व मांग लिया। तक तुम्हारी आकांक्षाओं में संघर्ष और द्वंद्व है तब तक तुम कैसे | संसार उसी द्वंद्व का फैलाव है। शांत हो सकोगे? तब तक कैसा सुख? कैसी शांति? कैसा | इसे ऐसा समझो, संसार के कारण वासना नहीं है। वासना के चैन? तब तक कभी विराम नहीं हो सकता। | कारण संसार है। अगर तुमने सोचा संसार के कारण वासना है, तुम्हारी मांग में ही भूल हुई जा रही है। नहीं, कि तुम जो मांगते तो तुम्हारा पूरा जीवन का गणित गलत हो जाएगा। तब तुम हो वह नहीं मिलता है, इसलिए तुम दुखी हो। तुमने मांगा, उसी संसार को छोड़ने में लग जाओगे और वासना तो छूटेगी नहीं। 63/ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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