Book Title: Jina Sutra Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 637
________________ एक दीप से कोटि दीप हों कत गाने कत छंदे जगाओ उसे मेरे हृदय में। अरूप तोमार रूपेर लीला आमार मध्ये तोमार शोभा जागे हृदय पूर मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मेरी कोई शोभा है तो तुम्हारी मौजूदगी आमार मध्ये तोमार शोभा, से है। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, बस तुम हो। मैं तो शून्य हूं। एमन सुमधुर तुम विराजो तो सब हो जाता है। तुम न विराजो तो रिक्त रह जाता हे भगवान रजनीश! हूं। मेरे शून्य में तुम उतर आओ तो सब है मेरे पास। तुम चले लहो सागरेर नमन, प्रवीणेर वंदन। जाओ तो सब भी हो मेरे पास तो बस रिक्तता है, खालीपन है। आमार मध्ये तोमार शोभा ऐसा ही लगता है प्रेमी को कि मेरी सीमा में असीम उतरा; कि एमन सुमधुर मेरे आंगन में आकाश उतरा। भक्त जब सुनता है तो एक-एक भक्त की सारी आकांक्षा परमात्मा के लिए जगह देने की, शब्द अमृत बनकर बरसता है। भक्त जब सुनता है खुले हृदय अवकाश देने की है। भक्त जगह खाली करता है। भक्त कहता से तो जो ज्ञानी को, ध्यानी को, केवल शब्द मालूम होते हैं, भक्त है, मैं हटता, तुम आओ। मैं चला, तुम विराजो। यह सिंहासन को सिर्फ शब्द नहीं मालूम होते; उन शब्दों में एक अनूठा | तुम्हारे लिए खाली करता। जीवन, एक आभा, उन शब्दों में शून्य की झनकार...। ऐसा भक्त अपने को गलाता, मिटाता, शून्य करता। सीमार माझे असीम जैसे-जैसे शून्य होता वैसे-वैसे पूर्ण उसमें उतरता। एक दिन लगता, मेरी सीमा में असीम आया। गुरु का मिलन सीमा से भक्त अचानक पाता है, एक सुबह जागकर अचानक पाता है, असीम का मिलन है। शिष्य यानी सीमा। शिष्य वही जिसे कि भक्त तो बचा ही नहीं, भगवान ही बचा है। एक दिन भक्त अपनी सीमा का पता चल गया और जो राजी है असीम के चरणों | अचानक पाता है, उसकी बांह गले में पड़ गई। एक दिन भक्त में अपनी सीमा को डाल देने को। अचानक पाता है उसकी अंगूर की छाया तले बैठे हैं। नहीं, भक्त सीमार माझे असीम को बैकुंठ की चाह नहीं, न भक्त को कल्पवृक्षों की चाह है। तुमी बाजाओ आपन सूर उसके प्रेम की वर्षा होती रहे। और शिष्य कहता है, बजाओ तुम अपनी वीणा। बजाओ तुम भक्त मिटना चाहता है। मिटने में ही प्रेम की वर्षा है। अपना स्वर। मैं राजी हूं। मैं सुनूंगा, मैं नाचूंगा। मैं घूघर और जो शिष्य भक्त की तरह गुरु के पास आता है, अनायास पहनकर आ गया हूं। तुम बजाओ अपना स्वर। | गुरु उसके माध्यम से बहुत-से काम करने शुरू कर देता है। तुम आमार मध्ये तोमार प्रकाश छोड़ो भर, कि तुम उपकरण बन जाते हो। और गुरु के पास तो मैं तो अंधेरा हूं, लेकिन जलाओ तुम अपना दीया। तुम्हारा | सिर्फ सीखना है छोड़ने की कला। अगर तुम गुरु के पास अपने प्रकाश हो मेरे,मध्य को छोड़ सके तो तुमने अ, ब, स सीख लिया छोड़ने का। यही ताई एतो मधुर। अ, ब, स काम आएगा परमात्मा के पास छोड़ने में। कत वर्णे कत गंधे परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। बड़ा अदृश्य है। उपस्थित कहा न जा सके ऐसा रूप। कही न जा सके ऐसी गंध। | है और उपस्थिति मालूम नहीं होती। उसी का स्वर गूंज रहा है कत गाने कत छंदे लेकिन सब सुनाई पड़ता है, वही सुनाई नहीं पड़ता। बांधा न जा सके जो छंद में। गीत में जो समाए न, अटाए न। गुरु में परमात्मा थोड़ा-सा दृश्य होता है-थोड़ा-सा। एक अरूप तोमार रूपेर लीला किरण उस सूरज की उतरती मालूम होती है। थोड़ा रूप धरता। तुम्हारी रूप की लीला अपूर्व है, अरूप है। यही तो अवतार का अर्थ है : अवतरित होता। जैसे भाप उतर जागे हृदय पूर आए, जल बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी. जल 627 _Jain Education International 2010_03. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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