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त्रिगुप्ति और मुक्ति
छूटना चाहो, उसकी याद सघन हो जाती है। एक दिन तय करके स्वर्ण-अवसर है। क्रोध जैसी महत्वपूर्ण घटना घट रही है। इसे देख लो कि महीनेभर ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो। महीनेभर का ही तुम फिजूल की बकवास में खराब मत कर देना। जब क्रोध उठे लेना, ज्यादा का मत लेना क्योंकि प्रायोगिक है। उस महीने में तो द्वार-दरवाजे बंद करके बैठ जाना। और क्रोध की गांठ तुम्हारे तुम पाओगे कि सारी जीवन-ऊर्जा बस कामवासना में ही संलग्न मन पर कैसे लग रही है उसका पूरा दर्शन करना, अवलोकन हो गई। दो-चार दिन उपवास करके देख लो, बस भोजन ही करना, निरीक्षण करना, देखना, दबाना मत, क्योंकि दबाने की भोजन, भोजन ही भोजन। ऐसे विचार तुम्हें भोजन के पहले कोई जरूरत नहीं है। किसी पर निकालना भी मत, क्योंकि किसी कभी भी न आते थे, वे उपवास में आते हैं। तो उल्टी घटना घट पर निकालने में समय खो जाएगा। वह तो घड़ी देखने की है, जाती है।
साक्षात्कार की। मैं जैनों के घरों में ठहरता रहा। उनके पर्युषण पर्व आते, किसी ने गाली दी, तुम क्रोध से उबलने लगे; भागो! बंद करो दस-दस दिन का उपवास कर लेते। इधर सोहन बैठी है पीछे अपना द्वार-दरवाजा। बैठकर कमरे में आंख बंद करके देखो। वह आठ-आठ दिन के उपवास करती रही, उससे पूछो। यह जो धुआं उठ रहा है क्रोध का, कहां से आ रहा है? कहां है सालभर चौके में काम करती है, भोजन बनाती है, भोजन | इसका ईंधन? कहां है इसकी मल चिनगारी? खिलाती है और अच्छा भोजन बनाती है-भोजन की याद ही और यह तो तभी संभव है इसको देखना, जब तुम कोई विरोध न आएगी। अक्सर जो महिलाएं भोजन बनाती हैं उनको भोजन न करो। तुम यह न कहो कि यह बरा है, गंदा है, पाप है। में रस ही खो जाता है। भोजन बनानेवाले को भोजन करने में क्योंकि जैसे ही तमने यह कहा, तुम्हारी आंखें बंद हो गईं। उतना मजा नहीं आता।
दुश्मन को हम आंख मिलाकर थोड़े ही देखते हैं। सिर्फ गहरे प्रेम लेकिन उपवास कर लो तो सब झरने खुल जाते हैं। सब तरफ में ही, मैत्री में ही किसी की आंख में आंख डालकर देखते हैं। से रसधार बहने लगती हैं। जैसे स्वाद ही जीवन का केंद्र बन दुश्मन से तो हम बचकर निकल जाते हैं। जाता है। और इसलिए जैन पर्युषण के बाद जैसे भोजन पर टूटते अगर क्रोध को तुमने दुश्मन समझ लिया तो फिर तुम कभी हैं...! तुम जाकर साग-सब्जीवालों से पूछ सकते हो कि | क्रोध का निरीक्षण न कर पाओगे। निरीक्षण न किया तो गांठ पर्युषण के बाद एकदम दाम बढ़ जाते हैं। मिठाई के दुकानदारों कैसे लगती है, समझ में न आएगा। गांठ कैसे लगती है समझ में से पूछ सकते हो कि पर्युषण के बाद एकदम बिक्री बढ़ जाती है। न आया तो गांठ खोलोगे कैसे? कसमें खाने से थोड़े ही गांठ आठ दिन, दस दिन किसी तरह सोच-सोचकर विचार खुलती है! कर-करके टाले रखते हैं। और दस दिन के बाद पागल होकर इसलिए मैं कहता हं महावीर ने धर्म को वैज्ञानिक रूप दिया टूट पड़ते हैं।
धर्म को मनोविज्ञान बनाया। उसको ठीक जहां से काम शुरू जिस चीज को तुम जबर्दस्ती रोकोगे, उसको महावीर कहते हैं होना चाहिए, वहां से इशारे किए।
संवर न हुआ। अकेली तपश्चर्या से कोई पहला इशारा उनका यह है कि मूलस्रोत की पहचान; मूल मुनि मोक्ष को उपलब्ध नहीं होता। संवर पहली बात है। झरने उदगम की पहचान। को सुखाओ।
__ और तुमने खयाल किया? अगर गंगा को पकड़ना हो, वश में झरना कहां है? सभी चीजों का मौलिक झरना कहां है? वह करना हो तो गंगोत्री पर जितना सरल है फिर आगे कहीं भी उतना मनुष्य की अचेतना में है। वह मनुष्य की मूर्छा में है। हम सरल नहीं है। गंगोत्री पर तो ऐसे छोटा-सा झरना है गंगा। बेहोश हैं। हमें पता ही नहीं गांठ कैसे लगती है। रोज गांठ | गौमख में से गिरती है, बहत बड़ी हो भी नहीं सकती। गंगा को लगती है और हम देख नहीं पाते। क्रोध रोज उठता है और हम अगर वश में करना हो तो गंगोत्री पर करना आसान है। प्रयाग में देख नहीं पाते कि यह गांठ हमारे रूमाल पर लगती कैसे? या काशी में अगर वश में करने गए तो तुम पागल हो जाओगे। तो अब जब क्रोध उठे तो उस मौके को खोना मत। वह बड़ा वह वश में होनेवाली नहीं। बहुत बड़ी हो जाती है।
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