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त्रिगुप्ति और मुक्ति
सूखता।'
नमस्कार करके बच निकलते हैं। वह नमस्कार भी बच निकलने | जागकर देखना कि क्रोध उठता कैसे है। यह सीधी बात है। की तरकीब है कि महाराज! आप यहां ठीक, हम अपनी जगह | बुद्ध एक दिन सुबह-सुबह अपने भिक्षुओं के बीच आए, ठीक। अब आप मिल गए तो पैर छूए लेते हैं। और करें भी | बैठे; और उन्होंने एक रूमाल हाथ में लिया हुआ था, उसमें एक क्या? मगर आपने महान त्याग किया है।
गांठ बांधी, दूसरी गांठ बांधी, पांच गांठे बांधीं। भिक्षु देखते रहे खयाल रखना, आदमी को क्रोध आता है अहंकार पर चोट चौंककर कि मामला क्या है? ऐसा उन्होंने कभी किया न था। लगने से। और क्रोध त्याग की भी वह चेष्टा करता है अहंकार फिर उन्होंने पूछा कि भिक्षुओ, इस रूमाल में पांच गांठें लग
को ही भरने के लिए। तो मूल रोग तो जारी रहता है। आदमी को गईं। तुमने दोनों हालतें देखीं, जब इसमें कोई गांठ न थी और | लोभ है, मद है, मत्सर है मूर्छा के कारण। उसे होश नहीं कि मैं अब जब कि गांठ लग गई। क्या यह रूमाल दूसरा है या वही | कौन हूं। इसी बेहोशी में वह कसमें भी लेता है, संसार भी त्याग | है? गांठ से शून्य और गांठ लगे रूमाल में कोई फर्क है या यह देता है। हिमालय चला जाता है। लेकिन बेहोशी तो छूटती वही है? नहीं। बेहोशी अपनी जगह बनी है।
एक भिक्षु ने कहा कि महाराज! आप झंझट में डालते हैं। एक तो महावीर कहते हैं, 'यह जिनवचन है कि संवरविहीन मुनि अर्थ में तो यह रूमाल वही है। गांठ जरूर लग गईं लेकिन को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता; जैसे कि पानी के रूमाल तो वही का वही है। और दूसरे अर्थ में रूमाल वही नहीं आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं है क्योंकि पहले रूमाल में गांठें नहीं थीं। वह गांठमुक्त था,
इसमें गांठे हैं। 'संवरविहीन मुनि...।'
बुद्ध ने कहा, ऐसा ही आदमी है। आदमी परमात्मा ही है, बस जिसने मूल स्रोत को नहीं रोका है। जिसमें आने का मार्ग तो | गांठें लग गई हैं। फर्क इतना ही है जितना गांठ लगे रूमाल में खुला ही हुआ है और जो थोड़े-बहुत उलीचने में लग गया है। और गैर-गांठ लगे रूमाल में है! दोनों बिलकुल एक जैसे हैं।
तुम एक नाव में जा रहे हो, छेद हो गए हैं नाव में, पानी भरा जा गांठ में थोड़ी उलझन बढ़ गई है, बस। गांठ खोलनी है। रहा है। तुम छेद तो रोकते नहीं, पानी उलीचते हो। यह नाव तो बुद्ध ने कहा, ठीक है, गांठ खोलनी है। तो मैं तुमसे पूछता बहुत ज्यादा देर चलेगी नहीं, यह डूबेगी। पानी उलीचना जरूरी | हूं, मैं क्या करूं कि जिससे गांठ खुल जाएं? और उन्होंने दोनों है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है छेदों का बंद कर देना। रूमाल के कोने पकड़कर खींचना शुरू किया। एक भिक्षु ने खड़े
महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि पानी मत उलीचो। लेकिन होकर कहा कि महाराज! इससे तो गांठें और छोटी हुई जा रही पानी उलीचने से क्या होगा? अगर छेद नया पानी लाए चले जा हैं। आप खींच रहे हैं, इससे तो गांठों का खुलना मुश्किल हो रहे हैं तो तुम व्यर्थ की चेष्टा में लगे हो। पहले छेद बंद करो, | जाएगा। यह कोई ढंग न हुआ खोलने का। इससे तो और फिर पानी उलीच लो तो कुछ राह बनेगी। तो नाव के उस पार | उलझन बढ़ जाएगी। खींचने से कहीं गांठें खुली हैं? गांठे छोटी पहुंचने का उपाय होगा।
होती जा रही हैं, और सूक्ष्म होती जा रही हैं। इतनी छोटी हो छेद खोजो अपने जीवन के। बराई को छोड़ने की उतनी चिंता जाएंगी तो फिर खोलना मश्किल हो जाएगा। मत करो। बुराई कहां से आती है इसकी खोज करो। लेकर तो बुद्ध ने कहा, मैं क्या करूं? तो उस भिक्षु ने कहा, आप प्रकाश, ध्यान का दीया लेकर अपने भीतर खोज करो कहां से रूमाल मेरे हाथ में दें। मैं पहले देखना चाहता हूं कि गांठें किस बुराई आती है।
| ढंग से लगाई गई हैं। क्योंकि जब तक यह पता न हो कि लगाई बुद्ध से कोई पूछता कि क्रोध कैसे छोड़ें तो बुद्ध कहते, पहले कैसे गईं तब तक खोली नहीं जा सकतीं। बुद्ध ने कहा, मेरी बात यह तो जानो कि तुम क्रोध करते कैसे हो। छोड़ने की बात पीछे। तुम्हारी समझ में आ गई। इतना ही दिखाने के लिए मैंने यह नंबर दो है, दोयम। प्रथम है, तुम क्रोध करते कैसे हो। तो अब रूमाल, ये गांठें और यह प्रयोग किया था।
शश करो कि जब क्रोध हो तब तम परी तरह जिस चीज को भी खोलना हो वह लगी कैसे? खोलने के लिए
तुम ऐस
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