________________
त्रिगुप्ति और मुक्ति
मिल ही जाता दुआ को बाग-ए-कुबूल
तरफ बहने लगती है तो पुण्य कहें। और इन दोनों के बीच जो हिम्मत-ए-दिल ही पस्त है शायद
जोड़नेवाला सेतु है, वह तप है। तप शब्द बिलकुल ठीक है। -स्वीकार हो जाती प्रार्थना।
वह ताप से ही बना है; गर्मी से ही बना है। मिल ही जाता दुआ को बाग-ए-कुबूल
लेकिन कुछ नासमझ हैं, वे धूप में खड़े हो जाते हैं। वे कहते हिम्मत-ए-दिल ही पस्त है शायद
हैं, तप कर रहे हैं। कुछ नासमझ हैं, अंगीठियां लगाकर बैठ अगर नहीं मिलती प्रार्थना को स्वीकृति, अगर प्रार्थना पूरी नहीं जाते हैं। वे कहते हैं तप कर रहे हैं। होती तो इतना ही जानना कि अभी दिल की हिम्मत, दिल का आदमी के पागलपन की कोई सीमा नहीं। अंगीठियां लगाकर
-अभी दिल खोलकर मांगा ही नहीं। द्वार पर दिल तुम तप करोगे? शरीर को जला लोगे, पसीने-पसीने हो खोलकर दस्तक ही न दी। कुछ कमी रह गई।
| जाओगे। इससे तप का कोई संबंध नहीं है। धूप में खड़े इतना ही खयाल रखना कि कुछ कमी रह गई। फिर चेष्टा | रहोगे-सिर से सूरज को ऊगने-डूबने दोगे? इससे तप का करना। किसी भी दिन कमी पूरी हो जाएगी। और कोई भी नहीं कोई संबंध नहीं है। तुम नाहक कष्ट झेलोगे। कह सकता, कब पूरी हो जाएगी। क्योंकि अब तक कोई तप है आंतरिक। खयाल करो, सूरज की किरणों में दोनों बातें थर्मामीटर नहीं बन सका, जिससे हम पता लगा सकें कि आदमी | हैं: ताप भी है, और प्रकाश भी है। प्रत्येक ताप के साथ प्रकाश का होश समाधि के करीब आ गया या नहीं। कोई उपाय नहीं। | भी जुड़ा है। प्रकाश के दो गुणधर्म हैं: एक तो चीजों को
जैसे थर्मामीटर में हम पता लगा लेते हैं कि आदमी का बुखार प्रकाशित करना और उत्तप्त करना। ज्यादा तो नहीं हो गया? कम तो नहीं हो गया? अब तक कोई ऐसे ही तुम्हारे भीतर चैतन्य का जब प्रकाश जगना शुरू होता है थर्मामीटर नहीं बना, कि पता चल सके कि आदमी का होश | तो दो घटनाएं घटती हैं। एक तो तुम भीतर प्रकाशित होने लगते कितना है? अभी होश को मापने का कोई उपाय नहीं है। हो और तुम्हारी जीवन-ऊर्जा उत्तप्त होने लगती है। तो एक तरफ
इसलिए तुम्हें टटोल-टटोलकर ही चलना होगा। मगर एक तो तुम सौ डिग्री की तरफ बढ़ने लगते हो, जहां छलांग लगेगी, बात पक्की है-जिन्होंने खोजा, उन्हें मिला। अगर तुम्हें न मिले | सीमा टूटेगी। दृश्य का बंधन गिरेगा। नीचे की तरफ बहने की तो ऐसा मत सोचना कि होश मिलता ही नहीं। अधिक लोग पुरानी आदत से छुटकारा होगा। और दूसरी तरफ जैसे-जैसे जल्दी ही ऐसा सोच लेते हैं कि न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा ताप सघन होता जाएगा वैसे-वैसे तुम रोशनी से मंडित होते है, न कोई होश है। यह कुछ होनेवाली बात नहीं है। इस तरह जाओगे। तुम्हारे भीतर एक प्रभामंडल जन्मेगा। अंगीठियां पस्ते-हिम्मत मत हो जाना, हताश मत हो जाना।
जलाने की जरूरत नहीं; तुम्हारे चेहरे से, तुम्हारी आंखों से, तपश्चर्या का यही अर्थ है, जब महावीर कहते हैं तप, तो तुम्हारे व्यक्तित्व से, तुम्हारे उठने-बैठने से, प्रकाश की झलक उनका यही अर्थ है। तप का अर्थ है, अपने को तपाते जाना, मिलनी शुरू होगी। तुम एक दीया बन जाओगे। गरमाते जाना। सौ डिग्री पर भाप बनोगे, छलांग लगेगी। देखा! और धीरे-धीरे व्यक्ति पारदर्शी हो जाता है। तुम उसके दीये पानी नीचे की तरफ बहता है। फिर जब भाप बन जाता है तो | को बाहर से भी देख सकते हो। जिनके पास भी थोड़ी देखने की ऊपर की तरफ उठने लगता है। वही पानी, जो सदा नीचे की आंख है और सहानुभूति से भरी आंख है, वे किसी भी तरफ बहता था, अब अचानक ऊपर की तरफ उठने लगता है। जीवित-जागते व्यक्ति के भीतर रोशनी को देखने में समर्थ हो वही पानी जो दृश्य था, अब अदृश्य होने लगता है। वही पानी | जाते हैं। जो गड्ढों की तलाश करता था, आकाश की तलाश में निकल तो तपश्चर्या का अर्थ तुम यह मत ले लेना कि अपने को व्यर्थ जाता है। बस सौ डिग्री का फर्क है!
| कष्ट देने हैं। तपश्चर्या का अर्थ है, जो कष्ट आ जाएं उन्हें ठीक ऐसे ही मनष्य की चेतना साधारणतः नीचे की तरफ बहती स्वीकार करना है, देने नहीं हैं। आनेवाले कष्ट ही काफी हैं, अब है। इस नीचे की तरफ बहने को हम पाप कहें। जब ऊपर की और देने की क्या जरूरत है? इतने जन्मों के कर्मों का जाल है
603
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org