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पंडितमरण सुमरण है
इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा
'शरीर को नाव, जीव को नाविक कहा। यह संसार समुद्र है, और तेरा दरिया बड़ा नाराज हो गया।
जिससे महर्षिजन तर जाते हैं।' जो व्यक्ति नाव उतारेगा उसी को दरिये की नाराजगी पता और जो उस किनारे को छू लेता है, वही महर्षि है। जो चलेगी। किनारे पर बैठे-बैठे दरिया का पता ही नहीं चलता। जीते-जी मर जाता है वही महर्षि है। जो शरीर की नाव को खेकर सागर का अनुभव तो माझी को होता है। जिसने अपनी | उस पार पहुंच जाता है...। छोटी-सी डोंगी को इस विराट सागर में उतार दिया....और पहंचते तो तम भी हो. बड़े बेमन से। पहंचते तो तम भी हो. कितनी ही बड़ी नाव हो, छोटी ही है। क्योंकि सागर बड़ा विराट घसीटे जाते हो तब। इसलिए तो मृत्यु की एक बड़ी दुखांत है। जिसने तूफान और आंधियों से भरे इस सागर में अपनी नाव धारणा लोगों के मन में है—यमदूत, काले-कलूटे, भयावने, को उतार दिया, किसी ऐसे किनारे की तलाश में जो यहां से भैंसों पर सवार; घसीटते हैं। दिखाई भी नहीं पड़ता।
__यह बात बेहूदी है। यह तुम्हारे भय की खबर देती है। यह मृत्यु इसलिए नदी नहीं कहते संसार को, सागर कहते हैं। दूसरा का चित्रण तुमने अपने भय के पर्दे से किया है। तुम भयभीत हो
नदी। दसरा किनारा दिखाई ही नहीं | इसलिए भैंसे. काले-कलटे. यमदत...। लेकिन महर्षिजनों से पड़ता। है तो निश्चित। इसीलिए तो हमें मौत दिखाई नहीं | पूछो। जिनकी आंख निर्मल है, उनसे पूछो। और उनकी बात ही पड़ती। है तो निश्चित। इस जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त और | सच होगी क्योंकि उनकी आंख निर्मल है। वे कहते हैं, मृत्यु में कुछ भी निश्चित नहीं है। बाकी सब अनिश्चित है। एक ही बात | उन्होंने परमात्मा को पाया। यह छोटा, क्षुद्र जीवन गया, विराट निश्चित है, वह मृत्यु।
जीवन मिला। सीमा टूटी, असीम से मिलन हुआ। असीम का किनारा तो निश्चित है। क्योंकि जिसका एक किनारा है, | आलिंगन है मृत्यु। उसका दूसरा किनारा भी होगा ही। कितने ही दूर...कितने ही महर्षिजन से पूछो तो वे कहेंगे, परमात्मा बाहें फैलाए खड़ा है। दूर। एक किनारे के होने में ही दूसरा किनारा हो गया है। अब संसार छूटता है निश्चित। पर संसार में पकड़ने जैसा भी कुछ तुम दृढ़तापूर्वक मान ले सकते हो कि दूसरा किनारा होगा ही। नहीं है। मिलता है अपरिसीम, जाता है क्षुद्र। मिलता है विराट, अनुमान की जरूरत नहीं है। यह तो सीधा गणित है। यह खोता है क्षुद्र। खोता है क्षणभंगुर, मिलता है शाश्वत। किनारा है तो वह किनारा भी होगा। एक छोर है तो दूसरा छोर भी नहीं, मृत्यु का देवता यमदूत काला-कलूटा, भैंसों पर सवार होगा। जन्म हो गया तो मृत्यु भी होगी।
नहीं है। मृत्यु से ज्यादा सुंदर कुछ भी नहीं है क्योंकि मृत्यु है हम अक्सर जीवन को जन्म से ही जोडे रखते हैं। इसलिए हम विश्राम। इस जीवन में निद्रा से संदर तमने कछ जाना? गहरी जन्मदिन मनाते हैं, मृत्युदिन नहीं मनाते। हालांकि जिसको हम निद्रा, जब कि स्वप्न भी थपेड़े नहीं देते। सब वाय-कंप रुक जन्मदिन कहते हैं, वह एक तरफ से जन्मदिन है, दूसरी तरफ से जाते हैं। गहरी निद्रा, जब बाहर का संसार प्रतिछवि भी नहीं मृत्युदिन है। क्योंकि हर एक वर्ष कम होता जाता है। मौत करीब | बनाता, प्रतिबिंब भी नहीं बनाता। जब बाहर के संसार से तुम आती जाती है। अगर ठीक से पूछो तो जन्मदिन से ज्यादा | बिलकुल ही अलग-थलग हो जाते हो। गहरी निद्रा, जब तुम मृत्युदिन है क्योंकि जन्म तो दूर होता जाता, मौत करीब होती | अपने में होते हो डूबे, गहरे, तल्लीन-उससे सुंदर इस जगत में जाती है। जन्म का किनारा तो बहुत दूर पड़ता जाता, मौत का कुछ जाना है? किनारा करीब आता जाता। लेकिन फिर भी हम पीछे मुड़कर मृत्यु उसका ही अनंतगुना रूप है। मृत्यु से सुंदर कुछ भी देखते रहते हैं। हम जन्म के किनारे को ही देखते रहते हैं। नहीं। मृत्यु से ज्यादा शांत कुछ भी नहीं। मृत्यु से ज्यादा शुभ
दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता इसलिए कहते हैं: और सत्य कुछ भी नहीं। लेकिन हमारे भय के कारण मृत्यु का भवसागर। होना निश्चित है, लेकिन दृष्टि में नहीं आता। बहुत | रूप हम विकृत कर लेते हैं। हमारे भय के कारण विकृति पैदा दूर है।
होती है।
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