Book Title: Jina Sutra Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 593
________________ सजा और ऐसी सजा चाहता हूं गोपियां तो प्रसन्नता से नर्क चली जाएंगी, अगर उनके नर्क के जाने से कृष्ण का सिरदर्द ठीक होता हो। उन्हें तो क्षणभर भी खयाल न आया होगा कि यह कोई पाप हो रहा है। प्रेम शिष्टाचार के नियम मानता ही नहीं। जहां शिष्टाचार के नियम हैं, वहां कहीं छुपे में गहरा अहंकार है । सब शिष्टाचार के नियम अहंकार के नियम हैं। प्रेम कोई नियम नहीं मानता। प्रेम महानियम है। सब नियम समर्पित हो जाते हैं। प्रेम पर्याप्त है; किसी और नियम की कोई जरूरत नहीं है । ज्ञानी और भक्त में बड़े फर्क हैं। वे दृष्टियां ही अलग हैं। वे दो अलग संसार हैं। वे देखने के बिलकुल अलग आयाम हैं। जिसको हम ज्ञानी कहते हैं, वह रत्ती - रत्ती हिसाब लगाता है । कर्म, कर्मफल, क्या करूं, क्या न करूं, किसको करने से पाप लगेगा, किसको करने से पुण्य लगेगा। । भक्त तो उन्माद में जीता। वह कहता जो तुम कराते, करेंगे पाप तो तुम्हारा, पुण्य तो तुम्हारा। भक्त तो सब कुछ परमात्मा के चरणों में रख देता है। वह कहता है अगर तुम्हारी मर्जी पाप | कराने की है तो हम प्रसन्नता से पाप ही करेंगे। भक्त का समर्पण आमूल है। मदहोशी ! बेहोशी ! परमात्मा के हाथ में अपना हाथ पूरी तरह दे देना – बेशर्त । - सर वाइजो - शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी धर्म-उपदेशकों ने, तथाकथित ज्ञानियों ने, धर्मगुरुओं नेजोड़कर बदनाम किया — खूब सिर मारा और बदनाम किया, | तब कहीं बेहोशी को, मदहोशी को, फूलों के रंग जैसी शराब को वे बदनाम करने में सफल हो पाए; अन्यथा कभी बदनाम न होती। वाइजो - शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी भक्त तो शराबी जैसा है। ज्ञानी हिसाबी - किताबी है। दोनों के गणित अलग-अलग हैं। भक्त तो जानता ही नहीं क्या बुरा है, क्या भला है। भक्त तो कहता है, जो भगवान करे वही भला । जो मैं करना चाहूं वह बुरा, और जो भगवान करे वह भला । तो गोपियों ने सोचा होगा, भगवान कहते हैं अपनी चरण रज | दे दो, उन्होंने जल्दी से दे दी होगी। भगवान कराता है तो भला ही Jain Education International 2010_03 रसमयता और एकाग्रता कराता होगा। उनका समर्पण समग्र है। आखिरी प्रश्न: ध्यान की मृत्यु और प्रेम की मृत्यु क्या भिन्न हैं? क्या उनकी प्रक्रियाएं भी भिन्न हैं ? मृत्यु तो एक ही है; ध्यान की हो कि प्रेम की। लेकिन प्रक्रियाएं, उस मृत्यु तक पहुंचने के मार्ग, विधियां भिन्न-भिन्न हैं। ध्यान से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। प्रेम से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। मिटना तो दोनों हालत में होता है, लेकिन दोनों के मार्ग बड़े अलग-अलग हैं। ध्यान के पहले चरण पर तुम नहीं मिटते। ध्यान के पहले चरण पर तो तुममें जो गलत है उसको मिटाया जाता है, सही को बचाया जाता है। अशुभ को मिटाया जाता है, शुभ को बचाया जाता है। अशुद्धि जलाई जाती है, शुद्धि बचाई जाती है। तो ज्ञान के मार्ग पर या ध्यान के मार्ग पर व्यक्ति शुद्ध होने लगता है। मिटता नहीं, परिशुद्ध होता है, लेकिन बचता है। आखिरी छलांग में परिशुद्धि ऐसी जगह आ जाती है, जहां शुद्धता भी अशुद्धि मालूम होने लगती है। जहां होना मात्र अशुद्धि मालूम होती है, वहां आखिरी छलांग में ध्यानी अपने को बुझा देता है। भक्त पहले कदम पर बुझाता है। वह इसका हिसाब नहीं करता - अच्छा और बुरा। तो भक्ति छलांग है और ध्यान क्रमिक विकास है। ध्यान एक-एक कदम, धीरे-धीरे चलता है; आहिस्ता-आहिस्ता । भक्ति बिलकुल पागलपन है। वह एकदम छलांग लगा लेती है। ध्यानी ऐसे है, जैसे सीढ़ियों से उतरता है छत से - एक - एक कदम, सम्हल - सम्हलकर । सम्हलना ध्यान का सूत्र है— सावधानी | भक्त ऐसा है, छत से छलांग लगा देता है। फिक्र ही छोड़ता है हाथ-पैर टूटेंगे, बचेंगे, मरेंगे, क्या होगा। वह छलांग लगा देता है। उसकी श्रद्धा आत्यंतिक है। वह कहता है, उसे बचाना है वह बचा ही लेगा । जाको राखे साइयां। उसे नहीं बचाना है तो तुम सीढ़ियों पर भी सम्हल - सम्हलकर चलो तो भी मर जाओगे, तो भी मिट जाओगे। तो. भक्त तो छलांग लगाता है—एक ही कदम। फिर एक कदम के बाद उसे कुछ करना नहीं पड़ता। फिर तो जमीन का For Private & Personal Use Only 583 www.jainelibrary.org

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