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जिन सूत्र भाग : 2
उससे डरा हूं। क्योंकि जब वह बार-बार आएगी और न पाएगी हम अपने ढंग से जीएंगे, अपने ढंग से नाचेंगे। न हम किसी को तो मुझ पर नाराज होगी।
जोर-जबर्दस्ती करते कि वह हमारे ढंग का हो। न हम किसी को इसलिए अभी से सावधान कर देता हूं। बात ही छोड़ो। जैसी जोर-जबर्दस्ती करने देंगे कि हम उसके ढंग के हों। न हम किसी आयी थी निरुद्देश्य, ऐसी ही घर वापस लौट जाओ। जैसे को दबाएंगे, न हम दबेंगे। निरुद्देश्य मन से मुझे यहां चाहा, मुझे प्रेम किया, ऐसे ही घर पर संन्यास बड़ी गहरी उदघोषणा है। वह इस बात की उदघोषणा भी करना। आनंद मत मांगना, ध्यान मत मांगना। मांगना ही है कि अब न तो मैं किसी पर आग्रह थोपूंगा अपना कि वह मेरे मत कुछ। घटेगा। खूब-खूब घटेगा। जितना घटा है वह तो जैसा हो, और न मैं चाहूंगा कि कोई चेष्टा करे मुझे अपने जैसा सिर्फ शुरुआत है। यह तो अभी एक झाला आया है। अभी तो बनाने की। तो न तो मैं किसी का मालिक बनूंगा, और न किसी मूसलाधार वर्षा होगी। मगर मांगना मत। यह तो सिर्फ शुरुआत को मालिक बनने दूंगा। न मैं किसी की स्वतंत्रता छीनूंगा, और न है। और जब दुबारा यहां आओ तो अपेक्षा लेकर मत आना। किसी को मेरी स्वतंत्रता छीनने दूंगा। फिर ऐसे ही आ जाना। कठिन होगा। क्योंकि इस बार तो | दोहरी उदघोषणा है संन्यास। अब जो मेरी मौज है, वैसे ही निरुद्देश्य आना स्वाभाविक हुआ था। अब दूसरी बार बड़ा जीऊंगा। यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अपनी मौज में कठिन होगा। लेकिन अगर समझा कि पहली दफा निरुद्देश्य किसी को कष्ट दो। क्योंकि कष्ट देने का तो अर्थ हआ, जाने से घट गया था तो अब उद्देश्य लेकर क्यों जाएं? उदघोषणा इकहरी हो गई। तुम दूसरे पर अपने को थोपने लगे।
चले आना. जब आने की सविधा बने। यह सोचकर मत जीवन के परम रहस्यों में एक है कि न तो दसरे के जीवन में आना कि वहां जाकर खूब आनंद होगा; कि वहां खूब बाधा देना और न किसी को अवसर देना कि तुम्हारे जीवन में ध्यानमग्नता आएगी; कि डूबेंगे। यह सोचकर ही मत आना। बाधा दे। बड़ा कठित है। आसान है बात, या तो दूसरे के जीवन फिर ऐसे आना जैसे अजनबी हो। फिर घटेगा। जितना घटा पर हावी हो जाओ, दूसरे की छाती पर बैठ जाओ, मूंग दलो; उससे बहुत ज्यादा घटेगा। और इस सूत्र को अगर समझ लिया | यह आसान है। या दूसरे को अपनी छाती पर बैठ जाने दो, वह तो घटता ही रहेगा।
मूंग दले, यह भी आसान है। और यही अक्सर घटता है। या तो परमात्मा शुरू होता है, अंत कभी भी नहीं होता। हमारे पात्र | तुम किसी की छाती पर मूंग दलोगे, या कोई तुम्हारी छाती पर मूंग भर जाते हैं, फिर भी बरसता रहता है। पात्र ऊपर से बहने लगते दलेगा। इसलिए मैक्यावेली ने कहा है, इसके पहले कि दूसरा हैं, फिर भी बरसता रहता है। बाढ़ आ जाती है, बरसता ही रहता तुम्हारी छाती पर मूंग दले, देर मत करो; उचको, झपटो, बैठ है। लेकिन अड़चन खड़ी होती है कि जैसे ही हमने अपेक्षा की जाओ दूसरे की छाती पर, तुम मूंग दलना शुरू करो। नहीं तो कि हम सिकड़े। हमारा पात्र बंद हुआ। हम अपात्र हुए। कोई न कोई तुम्हारी छाती पर दल देगा। 'बिना किसी उद्देश्य के यहां आ गई। इरादा कुछ और मैक्यावेली कहता है, रक्षा का एकमात्र उपाय आक्रमण है। था—दक्षिण भारत घूमने जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर इसके पहले कि कोई हमला करे, तुम हमला कर दो। राह मत कुछ ऐसी पागल हुई कि संन्यास भी ले लिया...।'
देखो कि वह करेगा, फिर रक्षा कर लेंगे। क्योंकि जिसने राह ठीक कहती है। संन्यास एक तरह का पागलपन है। संन्यास देखी वह तो पिछड़ गया। एक तरह की मस्ती है। हिसाब-किताब की दुनिया के बाहर है। तो दुनिया में ऐसा ही हो रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को
या के बाहर है। सोच आदि को जो एक खा जाती है। तो या तो बड़ी मछली बनो या छोटी मछली किनारे हटाकर रख देता है वही संन्यस्त होने का अधिकारी है। बनोगे। और क्या करोगे? जो कहता है, लोक-लाज खोई। जो कहता है, अब फिक्र नहीं साधारण हैं दोनों बातें। यही हो रहा है। यही कलह है, यही कि लोग क्या कहेंगे। जो कहता है, दूसरों के मत का अब कोई संघर्ष है—देशों में, जातियों में, व्यक्तियों में, सारे संबंधों में। प्रभाव नहीं। अब हम अपने ढंग से जीएंगे। जीवन हमारा है, पति पत्नी पर हावी होना चाहता है कि वह मेरे ढंग से चले।
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