Book Title: Jina Sutra Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 545
________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं करता...। नहीं हैं अभी। ऊर्जा से भरे खड़े हैं। एक क्षण, एक-एक क्षण पीड़ ऐसी कि घटा छायी है सूचना की प्रतीक्षा है, और दौड़ पड़ेंगे। दौड़े नहीं हैं अभी, ठंडी यह सांस की पुरवाई है लेकिन ऊर्जा से भरे खड़े हैं। तुझको मालूम क्या है आज यहां ऐसी ही दशा भक्त की है। खोजने नहीं जाता लेकिन आलस्य बरखा बादल के बिना आयी है में नहीं है। बड़ी त्वरा से भरा है। वर्षा हो जाती है बादल के बिना आए। उसका अमृत-घट भर एक गीत कल मैं पढ़ रहा था। है तो इस संसार के प्रेम का गीत जाता है। बादल भी नहीं उमड़ते-घमडते और वर्षा हो जाती है। लेकिन प्रेम इस संसार का हो कि उस संसार का, बहत भेद नहीं अतर्व्य है भक्त का मिलन परमात्मा से। ज्ञानी का तो तर्क है। देखती हीन दर्पण रहो प्राण तम ज्ञानी का तो बिलकुल साफ-साफ है। रत्ती-रत्ती का उत्तर है। प्यार का महूरत निकल जाएगा ज्ञानी अर्जित करता है। भक्त के लिए भगवान प्रसाद-रूप है। कौन शृंगार पूरा यहां कर सका भक्त कहता है, मेरे किए मिलेगा यह संभव ही नहीं है। मेरे किए सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी ही तो चूक रहा है। मेरे कारण ही तो बाधा पड़ रही है। भक्त | हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा अपनी बाधा हटा लेता है। बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी ज्ञानी जिस दिन पाता है, उस दिन किसी को धन्यवाद देने की हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन भी जरूरत नहीं है। क्योंकि उसने अर्जित किया है। इसलिए पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां महावीर की संस्कृति का नाम पड़ गया है श्रमण संस्कृति। श्रम कांच से ही ना नजरें मिलाती रहो से पाया है, चेष्टा से पाया है, पुरुषार्थ से पाया है। बिंब को मूक प्रतिबिंब छल जाएगा भक्त तो कहता है, भगवान प्रसाद-रूप मिला है। मैंने पाया, | देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम ऐसी बात ही गलत है। प्यार का यह महूरत निकल जाएगा ज्ञानी तो कहता है, जब तक मैं पूर्ण न हो जाऊं तब तक कैसे भक्त कहता है, हम तो अपूर्ण हैं। कब तक सजते-संवरते सत्य मिलेगा? इसलिए ज्ञानी अपने को पूर्ण करने में लगता है। | रहें? तुम हमें ऐसे ही स्वीकार कर लो। हम कभी पूर्ण हो पाएंगे ज्ञानी की साधना है, भक्त की तो सिर्फ प्रार्थना है। भक्त कहता इसकी संभावना भी नहीं। लेकिन हमारा प्रेम पूर्ण है। हम अपूर्ण है, पूर्ण और मैं? होनेवाला नहीं। मिलोगे तो अपूर्ण में ही मिलन होंगे, हमारी चाह पूर्ण है। हमारी चाहत देखो। होगा। मर्जी हो तो जैसा हूं, ऐसा ही स्वीकार कर लो। मुझसे यह कौन शृंगार पूरा यहां कर सका सधेगा न, कि मैं पूर्ण हो सकूँ। सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी तो ज्ञान में एक खतरा है कि अहंकार बच जाए। भक्ति में हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा अहंकार का खतरा नहीं है। भक्ति का खतरा दसरा है कि बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी आलस्य का नाम भक्ति बन जाए। ज्ञान में आलस्य का खतरा हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन नहीं है। दोनों के खतरे हैं, दोनों के लाभ हैं। ज्ञानी का खतरा है पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां कि अहंकारी हो जाए कि मैंने अर्जित किया। भक्त का खतरा है कांच से ही नजरें ना मिलाती रहो कि आलस्य प्रतीक्षा बन जाए। आलस्य प्रतीक्षा नहीं है। प्रतीक्षा बिंब को मक प्रतिबिंब छल जाएगा बड़ी सक्रिय चित्त की दशा है, सक्रिय और निष्क्रिय एक साथ। भक्त कहता है, जो अभी मिल सकता है उसे कल पर मत बड़ी तीव्र प्यास की दशा है। टालो। जो इसी क्षण घट सकता है, उसे कल पर मत टालो। मत तुमने कभी देखा? ओलंपिक के चित्र देखे होंगे। दौड़ के लिए कहो कि हम तैयार होंगे। हम सीमित हैं। हमारी सीमाएं हैं। हम प्रतियोगी खड़े होते हैं रेखा पर। सीटी बजने की प्रतीक्षा है। दौड़े | अपूर्ण हैं। हमारी चाहत पूर्ण हो सकती है, हमारी अभीप्सा पूर्ण 535 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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