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छह पथिक और छह लेश्याएं
प्रकृति पर दबाव डाल रहा है। दो साल उम्र गिर जाना नीचे, बड़ी पाने योग्य था, बस उसी से वंचित रह जाओगे। हैरानी की बात है। बायोलाजिस्ट बड़े चकित हैं कि यह कैसे पीड़ा मिली जनम के द्वारा हुआ! अगर ऐसा जारी रहा तो शायद कुछ दिनों में और उम्र गिर | अपयश पाया नदी किनारे जाएगी। शायद सात वर्ष के छोटे-छोटे बच्चे कामातुर हो इतना कुछ मिल गया एक बस उठेंगे। ये बेमौसम के फल होंगे और इनके जीवन में बड़ी तुम्हीं नहीं मिले जीवन में कठिनाई खड़ी होगी।
हुई दोस्ती ऐसी दुख से लेकिन साधारणतः चौदह साल की उम्र तक कामवासना का हर मुश्किल बन गई रुबाई केंद्र सोया पड़ा रहता है, अचेतन रहता है। चौदह साल की उम्र इतना प्यार जलन कर बैठी में चैतन्य बनता है। और जैसे ही चेतना काम-केंद्र पर जाती है। क्वांरी ही मर गई जुनाई तो काम-केंद्र फिर अचेतन नहीं रह जाता। फिर सारा मन उसी | बगिया में न पपीहा बोला के आसपास घूमने लगता है। अक्सर लोग पहले केंद्र के पास | द्वार न कोई उतरा डोला ही समाप्त हो जाते हैं। अक्सर लोग इस पहले केंद्र पर ही जीते हैं। सारा दिन कट गया बीनते
और मर जाते हैं। बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी कामलोलुप ही जीता कांटे उलझे हुए वसन में है। चाहे कहता न हो, मन ही मन में छुपाकर रखता हो; इससे पीड़ा मिली जनम के द्वारा कछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन चित्त में कामवासना ही चलती अपयश पाया नदी किनारे रहती है। यह बड़ी दुर्दिन की घटना है, दुर्भाग्य की घटना है। इतना कुछ मिल गया एक बस इसका मतलब हुआ, महल अपरिचित रह गया।
तुम्हीं नहीं मिले जीवन में जैसे-जैसे तुम चैतन्य को भीतर प्रवेश करवाते हो, जैसे-जैसे | और एक चूक जाए, सब चूक गया। वह एक, जिसको भक्त तुम अपने और उपेक्षित अंगों पर रोशनी डालते हो, वैसे-वैसे प्रीतम कहते हैं, उसी को महावीर परमात्मा कहते हैं। वह प्यारा तुम पाते हो, नई-नई संभावनाओं का आविर्भाव होता है। तुम्हारे भीतर ही बैठा है। लेकिन तुम भीतर जाओ तो मिलन हो।
महावीर कहते हैं, छठवें केंद्र पर शुक्ल लेश्या पूर्ण होती है। तुम अपने बाहर ही बाहर भटक रहे हो। और तुमने ऐसे पर्दे टांग पूर्णिमा की चांदनी फैल जाती है तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व पर। रखे हैं कि भीतर की याद ही भूल गई है। काले पर्दे ही दिखाई पूर्णिमा की चांदनी फैल जाने के लिए तुम्हें अंतर्यात्रा पर जाना पड़ते हैं। लगता है, भीतर कुछ और है नहीं। होगा। और जो पर्दे तुम्हें बाहर रोकते हैं, उन्हें धीरे-धीरे छोड़ना मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमने पढ़ा कबीर को, पढ़ा होगा।
नानक को; तो वे सभी कहते हैं कि भीतर जाने से प्रकाश होता कृष्ण, नील, कापोत, इन्हें छोड़ो।
है। हम तो जाते हैं तो सिवाय अंधकार के कुछ नहीं दिखाई लोभ, मोह, घणा, क्रोध, अहंकार. ईर्ष्या छोडो। प्रेम, दया, | पडता। वह कष्ण लेश्या जब तक न हटेगी, काला पर्दा पड़ा सहानुभूति जगाओ। परिग्रह छोड़ो, अपरिग्रह जगाओ। रहेगा। तुम जाओगे भीतर तो तुम काला ही पाओगे। अक्सर कृपणता छोडो, बंटना सीखो। मांगो मत, दो। और अंतर्यात्रा | तुम भीतर आंख बंद करोगे, तो या तो विचारों का ही ऊहापोह शुरू होगी।
| मचा रहेगा। या अगर कभी क्षणभर को विचारों से छुटकारा चीजों को मत पकड़ो। चीजों का मूल्य नहीं है। चीजों को मिला तो अंधेरी रात, अमावस! घबड़ाकर तुम बाहर निकल अपना मालिक मत बनने दो, चीजों के मालिक रहो। उपयोग | आओगे। करो साधन की तरह; साध्य मत बनाओ। तो धीरे-धीरे पर्दे | और अंधेरे से हमें डर लगता है। अंधेरा हम पैदा करते हैं और टूटते हैं।
| अंधेरे से हमें डर लगता है। अंधेरा हम जीवनभर बनाते हैं और अगर ऐसा न किया तो जीवन में सब तो पा लोगे, लेकिन जो अंधेरे से हमें डर लगता है। तो जैसे ही अंधेरा दिखा, फिर भागे
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