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आनंद बढ़े वह करने योग्य है। जिससे सत्य की प्रतीति बढ़े वह करने योग्य है। जिससे अंधेरा बढ़े, दुख बढ़े, असत्य बढ़े, वह करने योग्य नहीं है।
तो सोचो। सोचकर, सम्हलकर चलो। थोड़ी सावधानी, थोड़े सावचेत बनो। चौबीस घंटे में तुम इतनी बातें कर रहे हो कि अगर तुम गौर से देखोगे तो पाओगे, उनमें से नब्बे प्रतिशत तो करने योग्य ही नहीं हैं।
कितनी बातें तुम लोगों से कहते हो, न कहते तो क्या हर्ज था ? और उन कहने के कारण कितनी झंझटों में पड़ जाते हो ।
इंगलैंड के बड़े विचारक एच. जी. वेल्स ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अगर लोग चुप रहें तो दुनिया में से निन्यानबे प्रतिशत झगड़े समाप्त हो जाएं। बोलने से झगड़े खड़े होते हैं। बोले कि फंसे। कुछ कहा कि उलझे । चुप रह जाओ। टेलिग्राफिक होना चाहिए आदमी को । जैसे तार करने गए हैं दफ्तर में पोस्ट आफिस के, एक-एक पैसे के दाम हैं; एक एक पंक्ति के, एक-एक शब्द के दाम हैं। तो आदमी सोच-सोचकर निकालता है कि दस शब्द में काम चल जाए।
उतना ही बोलो, जितना बोलने से काम चल जाए । उतना ही चलो, जितना चलने से काम चल जाए। उतने ही संबंध बनाओ, जितनों से काम चल जाए। तो तुम धीरे-धीरे पाओगे, जीवन में एक संयम अवतरित होने लगा ।
'कार्य - अकार्य का ज्ञान, श्रेय अश्रेय का विवेक, सबके प्रति समभाव, दया, दान में प्रवृत्ति, ये तेजोलेश्या के लक्षण हैं।'
छीनने-झपटने की प्रवृत्ति, विषय- लोलुपता संसार को बनाती है। देने की वृत्ति, दान की, बांटने की वृत्ति धर्म को निर्माण करती है। लोभ अगर संसार की जड़ है तो दान धर्म की
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जैसे ही तुम देते हो, कई घटनाएं घटती हैं। एक देने के कारण वस्तुओं पर तुम्हारा मोह क्षीण होता है। दोः देने के कारण तुम्हारा प्रेम विकसित होता है। तीन देने के कारण दूसरा व्यक्ति मूल्यवान बनता है । छोटी-सी भी चीज किसी को दे दो, उस क्षण में तुमने दूसरे को मूल्य दिया।
इसलिए तो भेंट का इतना मूल्य है। चाहे कोई चार पैसे का रूमाल ही किसी को दे जाए, पैसे का कोई सवाल नहीं है। लेकिन जब कोई किसी को कुछ चीज भेंट में दे आता है तो | उसका मूल्य स्वीकार कर रहा है कि तुम मेरे लिए मूल्यवान हो ।
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षट पर्दों की ओट में
कि मैं तुम्हारे लिए कुछ देने को उत्सुक और तत्पर हूं। कि तुम्हें कुछ देकर मैं आनंदित होता हूं।
जो व्यक्ति दूसरों से लेकर ही आनंदित होता है, वह केवल सुख ही जानता है, आनंद नहीं जानता। और सब सुख के पीछे दुख छिपा है। क्योंकि जब तुम दूसरों से छीनते हो, तुम दूसरों को छीनने के लिए निमंत्रण दे रहे हो। तुम शत्रुता खड़ी करते हो, जब तुम छीनते हो । जब तुम देते हो, तब तुम मित्रता खड़ी करते हो । देने में आनंद है, और आनंद के पीछे कोई दुख नहीं है।
महावीर कहते हैं, समभाव । चीजों को एक दृष्टि देखना। अगर गौर से देखो तो गुलाब का फूल भी मिट्टी है । चंपा का फूल भी, चमेली का फूल भी, आदमी की देह भी, आकाश में खड़े हुए ये वृक्ष भी, हिमालय के शिखर भी, सभी मिट्टी के खेल हैं। सभी एक ही ऊर्जा के खिलौने हैं। अगर तुम धीरे-धीरे देखना शुरू करो तो तुम पाओगे, सारा जीवन एक की ही अनेक-अनेक रूपों में अभिव्यक्ति है। एक की अभिव्यक्ति – तो समता पैदा होती है।
जानता हूं राह पर दो दिन रहेंगे फूल
आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल रात भर ही के लिए है आंख में सपना आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धूल इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं
फूल और धूल में फर्क क्या है ? जो फूल है, कल धूल था । जो फूल है, कल फिर धूल हो जाएगा। जो अभी धूल है, कल फूल पर नाचेगी, सुगंध बनेगी, रंग-रूप बनेगी। धूल और फूल में फर्क क्या है ? मित्र और शत्रु में फर्क क्या है? जो मित्र था वह शत्रु हो जाता है। जो शत्रु था, वह मित्र हो जाता है। जीवन और मृत्यु में फर्क क्या है? जीवन मृत्यु बनता रहता है, मृत्यु नए जीवन का रूप धरती रहती है। रोज दिन रात बनता है, रात दिन बनती है; फिर भी तुम देखते नहीं ।
जानता हूं राह पर दो दिन रहेंगे फूल आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल रात भर ही के लिए है आंख में सपना आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धूल इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं
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