________________
488
जिन सूत्र भाग: 2
अनेक पहलू हैं। सत्य एकांत नहीं है। जो कहता है, मैं ही सत्य, वह यह कहने से ही असत्य हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कहना, 'मैं भी सत्य ।' 'मैं ही सत्य'-असत्य हो गया। मैं भी सत्य और भी सत्य हैं।
लेकिन अहंकार दावा करता है, 'मैं ही सत्य ।' 'भी' पर अहंकार का जोर नहीं है, 'ही' पर जोर है। महावीर का जोर 'भी' पर है। इसलिए महावीर तो कहते हैं कि वह व्यक्ति भी, जो तुम्हारे बिलकुल विपरीत बोल रहा हो, उसकी भी बात ध्यानपूर्वक सुनना । उसमें भी कुछ सत्य होगा । अंश तो होगा ही, कुछ तो होगा ही।
यहां पापी से पापी व्यक्ति में थोड़ा संतत्व होता है और यहां संत से संत व्यक्ति में थोड़ा पापी होता है। यहां कोई पूर्ण तो होता नहीं। इसलिए तो हम कहते हैं इस देश में कि जो पूर्ण गया, दुबारा नहीं आता। पूर्ण होते से ही फिर दुबारा आने का उपाय नहीं। यहां तो आना हो तो थोड़ी अपूर्णता रखनी होती है।
जैन कहते हैं—जैन दर्शन; बड़ा महत्वपूर्ण दर्शन है - वह कहता है, तीर्थंकर होने के लिए भी तीर्थंकर कर्मबंध करना पड़ता है। वह भी पाप है। तीर्थंकर होने के लिए भी तीर्थंकर कर्मबंध करना पड़ता है। दूसरों पर करुणा की वासना रखनी पड़ती है तो ही कोई तीर्थंकर हो सकता है, नहीं तो तीर्थंकर भी नहीं हो सकता। दूसरों की सहायता करूं, इतनी वासना तो बचानी ही पड़ती है। नहीं तो तीर्थंकर भी कैसे होगा ?
इसलिए सभी सिद्ध पुरुष तीर्थंकर नहीं होते । अनेक सिद्ध पुरुष तो सिद्ध होते ही विलीन हो जाते हैं महाशून्य में। थोड़े-से सिद्ध पुरुष तीर्थंकर होते हैं। वे, वे ही सिद्ध पुरुष हैं, जिनकी सिद्धि में थोड़ी-सी वासना भी जुड़ी है अभी, कि दूसरों की सहायता करूंगा। जिनको अभी इतना और भाव बचा है, वे तीर्थंकर की तरह पैदा होते हैं। शुभ है कि इतनी वासना कुछ लोग बचाते हैं, अन्यथा जगत बड़ा अंधेरे से भर जाए।
‘जैन मानते हैं कि जिन-शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं।' बिलकुल ठीक मानते हैं और बिलकुल गलत कारणों से मानते हैं।
सोए होते हैं। शास्त्र तो बस शास्त्र हैं । किताब किताब है। किताब में कुछ भी नहीं होता ।
खोजो कहीं जीवित व्यक्ति को । किसी को खोजो, जिसके पास तुम्हारी आंखें आकाश की तरफ उठने लगें; जिसकी अभीप्सा तुम्हें भी संक्रामक रूप से पकड़ ले; जिसके बवंडर में तुम भी थोड़े उड़ने लगो ।
'... जाग्रत व सिद्ध पुरुषों के बाबत बताए जाने पर भी वे उनकी ओर उन्मुख नहीं होते।'
दुनिया में सबसे कठिन बात वही है : जाग्रत पुरुषों की तरफ उन्मुख होना। उसका मतलब है, अपने से विमुख होना । जाग्रत पुरुष के सन्मुख होने का एक ही उपाय है, अपने से विमुख होना। जो अपनी तरफ पीठ करे, वही जाग्रत पुरुष की तरफ मुंह कर सकता है।
अगर तुम विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार करो तो कोई खतरा नहीं है। एक न एक दिन साहस भी इकट्ठा हो जाएगा। लेकिन आदमी अपने अहंकार को बचाता है। वह यह नहीं कहा यह मेरी कमजोरी है कि मैं शास्त्र देख रहा हूं। वह अपनी कमजोरी को भी आभूषणों से अलंकृत करता है, शृंगार करता है । वह कहता है, यही सत्य है, इसलिए कहां, कौन सिद्ध पुरुष ? कहीं कोई सिद्ध पुरुष नहीं। पंचम काल में होते ही नहीं । हो चुके वक्त ! जा चुका समय, जब सिद्ध पुरुष होते थे ! वह महावीर के साथ ही बंद हो गया । महावीर के बाद हम व्यर्थ ही जी रहे हैं। महावीर के बाद कुछ घट ही नहीं रहा । इतिहास 'इसलिए दूसरे शासन में जाना नहीं चाहिए।' जिनपुरुष मिल रुक गया वहीं । महावीर के बाद दुनिया रही ही नहीं है। महावीर जाएं तो जाने की जरूरत भी नहीं है। क्या मरे, सब मर गया। महावीर क्या गए, सब गया। सब मत अटके रहना। शास्त्र न तो जागे होते हैं, न संभावना, सत्य को पाने की सारी सुविधा, सब चली गई।
जैन शास्त्र
Jain Education International 2010_03
कुछ
लेकिन अगर अभी तुम उतनी हिम्मत नहीं कर पाओ तो आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो यह होता है कि तुम इसी में अकड़ अनुभव करते हो । जानना चाहिए कि मैं अभी दीन-हीन । अभी मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं कि सूरज की तरफ सीधी आंखें करके देखूं । अभी तो मैं सूरज की तस्वीरें ही शास्त्र में बनी हैं, उन्हीं को देख पाता हूं। अभी तो उन्हीं तस्वीरों में मन को लुभाता हूं। मेरी हिम्मत नहीं। मैं कमजोर हूं। अभी मेरा बल नहीं। इतना साहस नहीं इस यात्रा पर निकलने का । अभियान पर जाने का दुस्साहस अभी मुझसे होता नहीं।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org