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- जिन सूत्र भागः 2
पकड़ने पड़ेंगे चरण। दया में देना होगा, जो हमारे पास है। और | हिला दिया; तो झूठ हो गया। यह तुम्हें दिखाई पड़े। सेवा में पाने की तत्परता रखनी होगी, जो दुसरा हमें दे सकता सत्य पक्षपात से निर्णीत नहीं होता, दर्शन से निर्णीत होता है। है। सेवा स्वीकार करने की दशा है। अंग्रेजी में वैसा कोई शब्द किसी धारणा को लेकर सत्य के पास गए कि चूक गए। नहीं है। सर्विस से वह बात पता नहीं चलती, सर्विस से तो दया निर्धारणा से जाना। ही पता चलती है।
"भोगों की आकांक्षा न करना...।' तो तुम साधारणतः सोच ही नहीं सकते कि परम स्वस्थ सांसारिक विषय लोलुपता को तो छोड़ आए बहुत पीछे। आदमी...महावीर खड़े हैं, उनकी सेवा के लिए जा रहे हो, वहां | छठवीं स्थिति में इस आखिरी पर्दे में भोग की इच्छा छोड़नी है। क्या जरूरत है? किसी गरीब की, किसी बीमार की, किसी रुग्ण | निश्चित ही महावीर का प्रयोजन है, स्वर्ग में भोग की इच्छा, की सेवा करो। महावीर को सेवा की क्या जरूरत है? वे तो पुण्य के द्वारा भोग की इच्छा। क्योंकि विषय लोलुपता को तो पहुंच गए। वहां तो अब कोई रोग नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई बहुत पीछे छोड़ आए। वे तो कृष्ण और नील लेश्याओं के हिस्से दुख-दारिद्रय नहीं, उनकी सेवा के लिए क्या जा रहे हो? थे। अब भोग की लिप्सा न करना। परलोक में कुछ मांगना
लेकिन जैन परंपरा में, पूरब की परंपरा में सेवा का अर्थ है: नहीं। जिसको मिल गया उसके पास जाना: उसके चरण दाबने. उसके । 'सबमें समदर्शी रहना...।' सामने झुकना, उसकी पूजा करनी। इसलिए सेवा और पूजा पहले कहा, समभाव; अब कहा समदर्शी। समभाव का अर्थ समानार्थी हैं। सिर्फ पूजा भी कही जा सकती थी, लेकिन पूजा | है, भावना। अभी घटना घटी नहीं है, तुम चेष्टा कर रहे हो। तुम मंदिर की मूर्ति की हो सकती है, सेवा नहीं हो सकती। जीवित प्रयास कर रहे हो, साध रहे हो। समदर्शी का अर्थ है : घटना घट गुरु की सेवा और पूजा दोनों हो सकती है। वहां सेवा और पूजा गई। अब तुम्हें दिखाई पड़ने लगा। सम्मिलित है।
समभाव साधते-साधते समदर्शी की अवस्था आती है। पहले इससे एक बहुत अनूठी दृष्टि पूरब की साफ होती है। पूरब तो देख-देखकर, चेष्टा कर-करके साधना होगा कि सभी में एक कहता है, दीन और दुखी पर दया करो, आनंद-अमृत को | का ही विस्तार है। मिट्टी का ही खेल है धूल और फूल दोनों में। उपलब्ध की सेवा करो। जो तुम्हें पाना है, उस तरफ सेवा से झुके | मगर ऐसा अभी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। ऐसा तुमने सुना हुए जाओ। जो तुम्हें मिल गया है, वह दूसरे को दे दो, दया | गुरुजनों से। ऐसा तुमने शास्त्र में सुना। ऐसा तुमने सत्संग में करो। दया में दान है। सेवा में झोली फैलाना है।
सीखा। इसकी तुम चेष्टा करते हो। जब चेष्टा करते हो, तब ये पद्म लेश्या के लक्षण हैं।
क्षणभर को लगता भी है कि ठीक है, धूल और फूल एक है। 'पक्षपात न करना, भोगों की आकांक्षा न करना, सबमें | लेकिन फिर चेष्टा भली. भटके, फिर फल, फल दिखाई पड़ने समदर्शी रहना, राग, द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना, ये शुक्ल | लगता है, धूल धूल दिखाई पड़ने लगती है। चेष्टा करने से कभी लेश्या के लक्षण हैं।'
क्षणभर को झलक मिलती है, फिर खो-खो जाती है। और अंतिम लेश्या, शुक्ल लेश्या।
समदर्शी का अर्थ है, जो गुरुजनों ने कहा, वह अब तुम्हें स्वयं 'पक्षपात न करना'-सत्य जैसा हो, वैसा ही स्वीकार दिखाई पड़ता है। तुम्हारी दृष्टि पैदा हो गई। करना; पूर्व पक्षपातों के आधार पर नहीं।
| 'राग, द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना...।' अब मैं जो यह कह रहा हूं, महावीर के सूत्रों का अर्थ कर रहा न तो किसी को अपना मानना, न किसी को पराया मानना। न हं, यहां जो जैन बैठे होंगे, वे कहेंगे, बिलकुल ठीक है। लेकिन इस संसार से किसी तरह का सुख मिल सकता है—प्रणय की यह बिलकुल ठीक तुम्हें दिखाई पड़ रहा है या सिर्फ पुराने आकांक्षा, कि इस संसार से किसी भी तरह का सुख संभव है, पक्षपात के कारण?
इसकी संभावना को भी स्वीकार न करना। संभावना मात्र का क्योंकि ये महावीर के सूत्र हैं और तुम जैन हो, इसलिए सिर गिर जाना। ये शुक्ल लेश्या के लक्षण हैं।
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