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जिन सूत्र भाग : 2
बाहर, फिर खोल दी आंख।
लेना जरूरी नहीं है। मुझसे लोग कहते हैं कि जब भीतर का अंधेरा दिखाई पड़ता है | तुमने आदमी देखे, जो कीड़े-मकोड़ों जैसे हैं, या नहीं देखे? तो बड़ी घबड़ाहट होती है। डर लगता है कहीं मर न जाएं, कहीं तुमने आदमी देखे, जिन्हें देखकर आदमी की याद बिलकुल नहीं खो न जाएं। यह कैसा अंधेरा है!
आती? जिन्हें देखकर जानवरों का स्मरण होता है। तुमने ईसाई फकीरों ने तो उसको नाम ही दिया है। डार्क नाइट आफ आदमी देखे, जिनका व्यक्तित्व अभी मनुष्य की सीमा को छूता द सोल। जिसको महावीर कृष्ण लेश्या कहते हैं, वही है। ईसाई | ही नहीं; मनुष्य के क्षितिज को छूता ही नहीं? जिनके नीचे के फकीर कहते हैं, जब कोई व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की तरफ पशु-पक्षी अभी भी सक्रिय हैं। देह मनुष्य की है, लेकिन मन जाता है तो एक बड़ी अंधेरी रात से गुजरना पड़ता है। वह अंधेरी अभी बहुत पिछड़ा हुआ है; बहुत पीछे का है। रात हमारी बनाई हुई है; हमीं को मिटानी पड़ेगी। दूसरा कोई उसे तुम कभी आंख बंद करके देखो, तुम पाओगे, मन बंदर की मिटा भी नहीं सकता। साहस करके, दुस्साहस करके हमें उस भांति है। जब तक मन शांत न हो जाए, तब तक तुम यह मत पर्दे को चीर डालना होगा।
समझना कि वृक्ष से उतर आए तो उतर आए। डार्विन ठीक ही कठिन नहीं है क्योंकि उसका ताना-बाना बहुत साफ है। कहता है कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। लेकिन एक जगह लोभ, माया, मोह, मद, इनसे ही बना है। इनको तुम क्षीण करो, भूल करता है वह यह–अभी पैदा कहां हुआ है? कभी-कभी वह काली चादर अपने आप क्षीण होने लगेगी। उसके ताने-बाने कोई होता है। कुछ बंदर झाड़ों से नीचे उतर आए हैं। कुछ बंदर उखड़ जाएंगे। जगह-जगह छेद हो जाएंगे। जगह-जगह छेद से झाड़ों पर बैठे हैं, लेकिन बंदरपन सभी के भीतर है। तुम्हें नील लेश्या का दर्शन होने लगेगा।
कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध वस्तुतः मनुष्य होता है, जिस व्यक्ति की कृष्ण लेश्या गिरती है, उसे भीतर नीले जब मन का बंदर नहीं रह जाता। अभी तुम देखो, मन के बंदर आकाश का दर्शन होगा। बड़ा शांत! जैसे कोई गहरी नदी हो को तुम मुंह बिचकाते, इस झाड़ से उस झाड़ पर छलांग लगाते, और नीली मालूम पड़ती हो।
इस शाखा से उस शाखा पर डोलते हुए पाओगे। तुम बंदर को फिर जो उसके भी पार जाएगा, उसके लिए महावीर कहते हैं, | भी इतना बेचैन न पाओगे, जितना तुम मन को बेचैन पाओगे। कापोत लेश्या। तब और भी हलका नीलापन; गहरा नहीं। ऐसे | डार्विन तो बड़ी बाहर की शोध करके इस नतीजे पर पहुंचा; क्रमशः पर्ते टूटती जाती हैं।
अगर भीतर जरा उसने झांका होता तो इतनी बाहर की शोध करने '...तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या, इनमें पहली तीन की जरूरत न थी। आदमी बंदर से निश्चित आया है। आदमी अशुभ हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता है।' | अभी भी बंदर है। और इस भीतर के बंदर से छुटकारा जब तक
यह भी समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इस सूत्र की व्याख्या | न पाया जाए तब तक मनुष्य का जन्म नहीं होता। मनुष्य की देह बड़ी अन्यथा की जाती रही है। वह व्याख्या ठीक है, लेकिन एक बात है; मनुष्य का चित्त बड़ी और बात है। बहुत महत्वपूर्ण नहीं है।
महावीर का यह सूत्र है : 'कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों व्याख्या की जाती रही है कि इन तीन लेश्याओं में जो उलझा अधर्म या अशुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव बड़ी दुर्गतियों में हुआ है, वह नर्क जाएगा; दुर्गति में पड़ेगा। पशु-पक्षी हो उत्पन्न होता है।' जाएगा, कीड़ा-मकोड़ा हो जाएगा। यह व्याख्या गलत नहीं है, तो तुम यह मत सोचना कि भविष्य में कभी दुर्गति होगी। जिस लेकिन बड़ी महत्वपूर्ण भी नहीं है।
क्षण जो लेश्या तुम्हें पकड़ती है, उसी क्षण दुर्गति हो जाती है। असली व्याख्या ः जो व्यक्ति इन लेश्याओं में उलझेगा उसकी दुर्गति उधार नहीं है कि फिर कभी होगी। दुर्गति अभी हो जाती बड़ी दुर्गति होती है। वह कभी भविष्य में, किसी दूसरे जन्म में है। जब तुम क्रोध से भरते हो, तब दुर्गति हो जाती है। जब तुम | कीड़ा-मकोड़ा बनेगा, ऐसा नहीं है। वह यहीं कीड़ा-मकोड़ा बन अहंकार से भरते हो तब दुर्गति हो जाती है। जाता है। कीड़ा-मकोड़ा बनने के लिए कीड़े-मकोड़े की.देह दुर्गति प्रतिपल हो रही है।
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