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कृष्ण मरकर सातवें नर्क गए, मगर फिर भी इतना सम्मान तो दिया कि उल्लेख किया— निंदा के लिए सही ! भूले तो नहीं, बिसराया तो नहीं। लेकिन हिंदुओं ने तो हद्द कर दी। उन्होंने महावीर को नर्क में डालने योग्य भी न माना । महावीर का उल्लेख ही न किया। अगर बौद्ध शास्त्र न हों तो महावीर का उल्लेख सिर्फ जैन शास्त्रों में रह जाएगा। और अगर बौद्ध शास्त्र न हों तो जैनों के पास प्रमाण जुटाना भी मुश्किल हो जाएगा कि महावीर कभी हुए।
इसीलिए जब पहली दफा हिंदू शास्त्रों का पश्चिम में अनुवाद हुआ तो पश्चिम के विचारकों ने यही समझा कि महावीर बुद्ध का ही एक नाम है। मूर्ति एक जैसी लगती भी है। उपदेश भी अहिंसा का कुछ एक जैसा मालूम पड़ता है। यह बुद्ध का ही एक | रूप है। महावीर को स्वीकार ही नहीं किया था। क्योंकि हिंदू शास्त्रों में कहीं उल्लेख ही नहीं । कारण क्या रहा होगा ?
भाषा बड़ी भिन्न है। भिन्न ही कहनी ठीक नहीं, ठीक विपरीत है । एक अगर रात कहता तो दूसरा दिन कहता; ऐसा फासला है। जमीन और पृथ्वी का फसला है। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि दोनों एक बात कहना चाह रहे हैं। कृष्ण ईश्वर की धारणा का उपयोग करते हैं उस बात को कहने के लिए। वे कहते हैं, ईश्वर कर्ता है, तू निमित्त । तू साक्षीभाव से जो हो रहा है, होने दे। इतना भर खयाल छोड़ दे कि मैं कर रहा हूं। फिर जो करवाए परमात्मा, कर।
महावीर परमात्मा की धारणा का उपयोग नहीं करते। उनकी भाषा में परमात्मा का कोई प्रत्यय, कोई प्रतीक नहीं है। वे इतना ही कहते हैं, तू साक्षीभाव कर। ध्यान की आत्यंतिक गहराई में, साक्षीभाव की परमदशा में अचानक तू जागकर देखेगा कि तुझसे अब तक जो हुआ था वह तुझसे हुआ ही नहीं था ।
अर्थ है कि सारे भस्मीभूत हो जाते हैं। वह तूने स्वप्न में किया था। वह कभी हुआ ही नहीं। सपने के खयाल थे। सपने में बुदबुदाया था। सपने में कुछ सोचा था कि कर रहा हूं, कुछ हो रहा है। सुबह जागकर पाया है कि सब सपने व्यर्थ हैं। सुबह जागकर तू हंसा है कि रात जो देखा, कितना सत्य मालूम पड़ता था ! कितना यथार्थ मालूम पड़ता था । जागते ही सब खो जाता है।
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ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत
कभी एक प्रयोग करो छोटा । सपने में जागने की चेष्टा करो। कठिन है, लेकिन हो जाता है। अगर रोज-रोज इसी धारणा को लेकर रात सोओ कि सपने में चेष्टा करूंगा कि जाग जाऊं; कि सपने को जान लूं कि सपना है। ऐसा अगर रोज रात को सोते वक्त यही धारणा, यही भावना करते-करते सोओ तो तीन और नौ महीने के बीच किसी न किसी दिन ऐसी घटना घटेगी कि अचानक तुम सपना देख रहे होओगे और भीतर स्मरण आ जाएगा कि अरे ! यह तो सपना है। और एक तब अनूठा मीठा अनुभव होता है। बड़ा अदभुत, बड़ा अनुपम, अपूर्व । क्योंकि जैसे ही तुम्हें याद आता है कि अरे ! यह तो सपना है कि सपना तत्क्षण खो जाता है। और उस सपने के खोने में पहली दफे तुम्हें पता चलता है कि होश में आना और सपने का टूट जाना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
ऐसा ही जीवन भी एक बड़ा सपना है।
महावीर माया शब्द का भी उपयोग नहीं करते। क्योंकि माया शब्द के उपयोग के लिए भी परमात्मा का होना जरूरी है। वह परमात्मा की शक्ति हो तो माया । कोई मायावी हो तो माया । कोई जादूगर हो तो जादू। कोई जादूगर तो है नहीं महावीर की भाषा में, इसलिए कोई माया भी नहीं है।
लेकिन यह सूत्र घोषणा कर रहा है कि जो कर्म केवल ध्यान में उतरने से समाप्त हो जाते हैं, वे वस्तुतः न रहे होंगे। अगर रहते तो ध्यान में उतरने से क्या होता था ? ध्यान में उतरने से सत्य थोड़े ही बदलता है। ध्यान में उतरने से केवल माया ही बदल सकती है।
तुम कमरे में बैठे हो, आंखें झपकी हैं, सपना ले रहे हो। अगर जाग जाओगे तो सपना टूट जाएगा, लेकिन तुम्हारे जागने से कमरे की कुर्सी, फर्निचर, दीवालें थोड़े ही समाप्त हो जाएंगी! जो है, वह तो तुम्हारे ध्यान में जाने से नष्ट नहीं होगा । वस्तुतः तुम जैसे ध्यान में जाओगे, प्रगट होगा, पूरे रूप में प्रगट होगा, जो है । जो नहीं है, वहीं खो जाएगा।
इस सूत्र का मैं यह अर्थ करता हूं कि महावीर यह कह रहे हैं कि तुमने अब तक जो किया है, हुआ, वह सब सपने में हुआ है। जागते ही एक क्षण में मिट जाएगा।
जह चिरसंचयमिंधण-मनलो पवणसहिओ दुयं दह । 'जैसे चिर-संचित ईंधन को वायु से प्रदीप्त आग तत्काल जला
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