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जिन सूत्र भागः2
देखा तुमने! दूधवाला दूध में पानी मिला लाता है, तुम कहते एक झलक कार की, और एक वासना का उठ आना, उमग हो, दूध अशुद्ध है। मगर, अगर दूधवाला कहे कि शुद्ध पानी आना भीतर घट गया। यह आस्रव। मिलाया है, तो अशुद्ध कैसे हो जाएगा? दूध भी शुद्ध था, पानी | आस्रव का अर्थ है: बाहर से चीजों को तुम्हें अशुद्ध करने का भी शुद्ध था, तो दो चीजें शुद्ध होकर मिलती हैं तो और भी शुद्धि मौका देते रहना। बढ़ गई होगी, दोहरी हो गई होगी। दुगुनी हो गई है। कौन कहता | तो जागे रहना। कुछ भी बाहर से निकले, तुम होश रखना, है अशुद्ध है?
आस्रव मत होने देना। कार निकल जाए, देखते रहना। कार के लेकिन फिर भी तुम कहोगे, अशुद्ध है। असलियत बात यह निकलने में कोई बाधा नहीं है। सुंदर स्त्री निकल जाए, देखते है, अशुद्धि का अर्थ ही इतना होता है : विजातीय से मिल जाना। रहना। सुंदर पुरुष निकल जाए, देखते रहना। सुंदर पुरुष-स्त्री दूध पानी नहीं है, इसलिए पानी के मिलाने से अशुद्ध हुआ। के निकलने में बाधा नहीं है। जब तक तुम्हारे भीतर छाप न पड़े, दूसरी बात तुमने खयाल नहीं दी क्योंकि पानी मुफ्त मिलता है। जब तक तुम्हारे भीतर संस्कार न हों, जब तक तुम्हारे भीतर कोई नहीं तो दूसरी बात भी सच है। पानी भी अशुद्ध हो गया दूध के तरंग न उठे तक तब कोई हर्जा नहीं है। मिलाने से। क्योंकि पानी का स्वभाव दूध नहीं है। पानी मुफ्त अगर तुम भीतर निस्तरंग रह सको तो बाजार में भी हिमालय मिलता है इसलिए कोई फिक्र नहीं करता। करो पानी को | है। हिमालय पर भी बैठकर अगर तुम निस्तरंग न रह सको तो अशुद्ध, कोई चिंता नहीं करता। दूध को मत करो क्योंकि दूध के | बाजार है। दाम लगते हैं। लेकिन दोनों अशुद्ध हो जाते हैं। दो शुद्ध चीजें | 'संवर'—यह भी महावीर का पारिभाषिक शब्द है। महावीर भी मिलती हैं तो परिणाम अशद्धि होता है।
कहते हैं, जो गलत हो सकता है, उसे होने मत देना। और जो महवीर कहते हैं, यहां संसार में सब मिलावट है। यहां सब | ठीक हो रहा है, उसे सम्हालना। उसका संवरण करना। चीज एक-दूसरे से मिली है। खिचड़ी हो गई है। इसलिए सब जैसे तुम ध्यान कर रहे हो, धर्म-ध्यान कर रहे हो, कोई अशुद्ध हैं। तुम्हारी आत्मा मन में घुल गई है। मन शरीर में घुला | निकलाः कार निकली, स्त्री निकली, पुरुष निकला तो है। शरीर बाहर संसार में डूबा है। सब एक-दूसरे को छेदे हैं। आस्रव-इस छाया को भीतर मत पहुंचने देना, दरवाजे पर रोक एक-दूसरे से भिदे पड़े हैं। एक-दूसरे में उलझे हैं। एक-दूसरे से देना—एक। और भीतर जो ध्यान की प्रक्रिया चल रही है, उसे गांठ बंधी है। इसलिए अशुद्धि है।
सम्हालना; उसका संवरण करना। तो बाहर से कुछ भीतर न इस अशुद्धि को याद रखना-अशुचि।
आए और भीतर से कुछ बाहर न जाए। और इसे याद रखना, कि तुम शुद्ध तो तभी हो, जब बस 'निर्जरा'—और जो भी छोड़ने योग्य है, छूटता हो तो पुरानी केवल तुम हो। जरा कुछ जुड़ा कि अशुद्धि हुई। कोई विचार | आदत के वश पकड़ना मत। जैसे पुराने पत्ते वृक्ष से गिरते हैं तो आया, कोई भाव आया, कोई कल्पना उठी, अशुद्धि हुई। दूध में वृक्ष पकड़ता नहीं। पानी पड़ा, या पानी में दूध पड़ा।
आदमी अदभुत है। यहां कचरा भी नहीं छोड़ा जाता। आदमी 'आस्रव'-महावीर का पारिभाषिक शब्द है। आस्रव का | उसको भी सम्हालकर रख लेता है, पता नहीं कब काम पड़े। अर्थ होता है: द्वार पर सम्हलकर बैठना। क्योंकि प्रतिपल तुम्हारे लोग टूटी-फूटी चीजें इकट्ठी करते रहते हैं। घर को कबाड़ बना मन में बाहर के जगत से संस्कार आ रहे हैं, वासनाएं आ रही हैं। लेते हैं इस आशा में, कि पता नहीं कब काम पड़ जाए।
तुम बैठे हो राह के किनारे, ध्यान कर रहे हो, एक कार निकल | एक दिन मैंने देखा, मुल्ला नसरुद्दीन एक ही जूता पहने चला गई। कार के निकलते ही, कार का दृश्य आंख में आते ही आ रहा है। मैंने पूछा कि दूसरे का क्या हुआ? उसने कहा, दूसरे तत्क्षण तुम्हारे भीतर कोई सोयी वासना जग गई—ऐसी कार मेरे का कुछ नहीं हुआ। एक रास्ते पर मिल गया। तो मैंने कहा, इस पास हो। शायद तुमने इतने शब्दों में कहा भी नहीं। शायद तुमने | एक का क्या करोगे? उसने कहा, जब एक मिल सकता है तो फिर आंख बंद कर ली, फिर अपनी माला फेरने लगे। लेकिन दूसरा भी मिल सकता है। इसको तो सम्हालकर रख लें।
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