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ध्यान है आत्मरमण
MANTRINAGIRATRAINA
संयोग! थोड़ी देर को मिलना हो गया है। इन थोड़े क्षणों में इस साधु-संत तुम्हें कहते हैं, वासना छोड़ो, यह नहीं कहते कि आशा तरह जीओ कि तुम्हारे कारण किसी को व्यर्थ दुख न पहुंचे; बस छोड़ो। क्योंकि अगर आशा छोड़ो तो साधु-संत भी आशा ही के काफी है। थोड़ी देर राह पर साथ हो लिए हैं, गीत गुनगुना लो, सहारे जी रहे हैं-स्वर्ग की आशा, मोक्ष की आशा, इस संसार ठीक। कुछ देते बने, दे दो; ठीक! लेकिन इस भ्रांति में मत में नहीं मिला तो परलोक में मिलेगा सुख, इसकी आशा। पड़ना कि यह सदा संबंध रहनेवाला है—निस्संग!
महावीर की बात कुछ और है। महावीर कह रहे हैं, आशा और जिसको यह पता चला कि मैं निस्संग हूं, वह निर्भय हो जानी चाहिए। आशारहितता जब तक न हो जाए, तब तक मुक्ति जाता है। मूल भित्ति है, जीवन से जो सुपरिचित होता है, वह | नहीं है। निस्संग हो जाता है। जीवन को देखोगे तो दिखाई ही पड़ जाएगा| आशा वासना का सूक्ष्मतम रूप है। आशा का अर्थ है, जो अकेला हूँ; बिलकुल अकेला हूं। जन्मों-जन्मों से अनंत की आज नहीं हुआ, कल होगा। जो आज नहीं हो पाया, कल कर यात्रा पर अकेला हूं।
लेंगे। आज चूक गए, कल न भूलेंगे, कल न चूकेंगे। आशा का और जब अकेला हूं, और साथ-संगी होने का कोई उपाय ही अर्थ है, जीवन को कल पर टालने की सुविधा। नहीं है तो भय कैसा? जब अकेला ही हूं और अकेला ही रहा हूं | रोज-रोज हारते हैं, लेकिन कल की आशा बचाए रखते हैं!
और अकेला ही रहूंगा तो अब भय भी क्या करना ! जब कोई बहुत घुटन है, कोई सूरते-बयां निकले, आदमी तथ्यों को देख लेता है, तथ्य स्वीकार हो जाते हैं। अगर सदा न उठे, कम से कम फुगां निकले।
अकसर ऐसा होता है कि युद्ध के मैदान पर जब सैनिक जाते फकीरे-सहर के तन पर लिबास बाकी है, हैं, तो बहुत डरे रहते हैं-जाने के पहले डरे रहते हैं; बड़े अमीरे-सहर के अरमां अभी कहां निकले। घबड़ाए रहते हैं, मौत की तरफ जा रहे हैं। पता नहीं लौटेंगे, नहीं | हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे लौटेंगे। लेकिन जैसे ही युद्ध के मैदान पर पहुंच जाते हैं, भय मलाल क्यों हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले। समाप्त हो जाता है। फिर गोलियां चलती रहती हैं और बम गिरते -कुछ सपने अगर झूठे निकल गए तो इतना दुखी होने की हैं और वे ताश भी खेलते रहते हैं, गपशप भी करते हैं, हंसते भी क्या जरूरत? हैं, गुनगुनाते भी हैं, भोजन भी करते हैं—सब चलता है। हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे
एक दफा युद्ध के मैदान पर पहुंच गए, एक बात स्वीकृत हो और अभी संसार तो बना है; तो और सपने बना लेंगे जाती है कि ठीक है, मौत है। जो है, है। उससे बचने का क्या मलाल क्यों हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले! है? भागने का कहां है?
-कुछ ख्वाब झूठे निकल गए, कुछ सपने सच न सिद्ध हुए जैसे ही हम तथ्यों के साथ आंख मिलाना सीख जाते हैं, एक तो इसमें दुखी होने की क्या बात है? अभय पैदा होता है कि जो है, है। मौत है तो है, करोगे क्या? आदमी हारता है एक में, तो लोग उसे आश्वासन देते हैं, क्या जाओगे कहां? भागोगे कहां? फिर युद्ध के क्षेत्र से तो भागना घबड़ाते हो? एक बार आदमी हार जाता है, दूसरी बार जीत संभव भी है। युद्ध के क्षेत्र में तो बचने का कोई उपाय हो भी जाता है। दूसरी बार हार जाता है, तीसरी बार जीत जाता है। सकता है, लेकिन जीवन के क्षेत्र में कहां भागोगे?
चले चलो! जीतोगे। यहां तो मौत सुनिश्चित ही है। कहीं भी जाओ, कैसे भी बचो, हालांकि इस संसार में कोई अब तक जीता नहीं। यहां सभी कहीं भी छिपो, मौत तुम्हें खोज ही लेगी। तो जब होना ही है तो हारे हैं। जीत यहां संभव नहीं है। हार यहां स्वभाव है। लेकिन स्वीकार हो जाता है।
आशा कहे चली जाती है, आज हार गए, ठीक से संघर्ष न कर 'निस्संग, निर्भय और आशारहित...।'
पाए, विधि-विधान न जुटा पाए, अब समझदार भी हो गए यह आशारहित शब्द को बहुत खयाल से समझने की जरूरत | ज्यादा, अनुभव भी हो गया, कल जीत लेंगे। है। जीवन में हम कामना से भी ज्यादा आशा से बंधे हैं। ऐसे जो कभी नहीं घटता, कभी नहीं घटेगा, उसकी आशा में
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