________________
जिन सूत्र भागः2
लगा, एकदम जाग गये। एक क्षण को तुम उस अवस्था में आए से बाधित, ग्रस्त या पीड़ित नहीं होता।' जिसको महावीर कहते हैं, प्रत्येक क्षण की बनाना है। _ 'वह धीर पुरुष न तो परीषह, न उपसर्ग आदि से विचलित
तुम कार चला रहे थे, गीत गुनगुना रहे थे, कि सिगरेट पी रहे | होता है, न ही सूक्ष्म भावों, से भयभीत होता है, और देव-निर्मित थे, कि रेडियो सुन रहे थे। चले जा रहे थे अपनी धुन में। मायाजाल से मुक्त होता है।' अचानक दूसरी कार तेजी से सामने आ गई, मौत का खतरा ध्यान, धर्म का मौलिक आधार है। आया। दुर्घटना होने-होने को थी, बाल-बाल बचे। उस क्षण जैसे किसी को दर्शनशास्त्र में जाना हो तो विचार, तर्क मौलिक एक जोर तुम्हारे भीतर ऊर्जा का उठेगा। तुम जाग जाओगे। एक आधार है। वैसे ही किसी को स्वयं में जाना हो, स्वभाव में जाना क्षण को लगेगा, सब नींद टूट गई। खतरा इतना था कि नींद रह हो तो ध्यान मौलिक आधार है। नहीं सकती थी।
तुम और सब साध लो और ध्यान न सधे, तो तुमने जो साधा मनोवैज्ञानिक कहते हैं खतरे में रस ही इसीलिए है कि उससे है, वह धर्म नहीं है। तुम तप साधो, योग साधो, और हजार तरह कभी-कभी जागने की झलकें आती हैं। लोग पहाड़ पर चढ़ने के क्रियाकांड और विधियां करो; यज्ञ करो, हवन करो, जाते हैं, गौरीशंकर चढ़ते हैं, खतरनाक है, जान-जोखिम में पूजा-प्रार्थना करो, लेकिन तुम्हारे भीतर अगर ध्यान नहीं सधा तो डालना है। लेकिन जब जोखिम होती है तो भीतर जागरण होता यह सब साधना बाहर-बाहर है; भीतर तुम न आ पाओगे।। है। जब जोखिम बहुत होती है तो भीतर बहुत जागरण होता है। और इस भीतर आने के लिए कुछ करने जैसा नहीं है। इस पहाड़ पर चढ़नेवाले को शायद पता भी न हो, कि वह क्यों पहाड़ भीतर आने की प्रक्रिया को तुम्हारी सारी क्रियाओं में से साधा जा पर चढ़ने के लिए पागल हुआ जा रहा है! लेकिन मनस्विद कहते सकता है। तुम दुकान पर बैठे बाजार में काम कर रहे हो, हैं, और सदा से ज्ञानियों को इस बात का खयाल रहा है कि खतरे ध्यान-पूर्वक करो-सोओ मत। मजदूर हो, कि अध्यापक हो, में लोगों को इसीलिए रस आता है कि खतरे में थोड़ी-सी नींद | कि दफ्तर में क्लर्क हो, कि स्कूल में चपरासी हो, कुछ भी हो; टूटती है और जागरण का स्वाद मिलता है।
गरीब हो, कि अमीर हो; सैनिक हो कि दुकानदार हो; कोई भी लेकिन पहाड़ पर अगर रोज-रोज चढ़ते रहे...जो पहाड़ पर | कृत्य हो जीवन का, वहीं एक बात साधी जा सकती है कि जो भी चढ़ने जाता है उसको तो थोड़ा रस आता है, लेकिन नेपाल में जो तुम करो, उसे होशपूर्वक करते रहो। आदमी दूसरों को पहाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं जिंदगी से, पृथ्वी यह परिस्थिति यह, उनको कुछ नहीं होता।
स्थान और पुरजन ये दलदल है, वह अभ्यस्त हो गया, यह यांत्रिक हो गया।
एरावत बन हम फंसते हैं बाहर तो हर चीज यांत्रिक हो जाती है, जब तक कि भीतर का मदांध हो समझते हैं जागरण ही सीधा-सीधान खोजा जाए...जैसे तुम कभी आग कमलवन हमारा है, हमारा हे जलाते हो, अंगारों पर राख जम जाती है. ऐसी चित्त पर नींद जमी यहां कुछ भी हमारा नहीं। यहां जो भी हमारा मालूम पड़ता है, है। इसे थोड़ा झकझोरना है। इसे झकझोरते रहना है। अंगारा वह सब दलदल है। लेकिन इस हमारे के दलदल में कुछ है, जो जलता रहे।
हमारा स्वभाव है। मेरा तो कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं हूं। 'हे ध्याता, न तो तू शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ यह मैं क्या है? इस मैं को हम कैसे पकड़ें? इस मैं की तरफ बोल और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार निरोध करने से हम किन यात्राओं, किन यात्रापथों से चलें? इस मैं का सुराग तू स्थिर हो जाएगा। तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यही परम कैसे मिले? ध्यान है।'
महावीर के इन सूत्रों का अर्थ हुआ कि इस मैं को जानना हो तो 'जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पहले तो जिस-जिस को तुमने मेरा माना है, उससे अपना संबंध
पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुखों शिथिल कर लो। क्योंकि 'मेरे' के दलदल में, 'मैं' फंसा है। 1338 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org