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ध्यान है आत्मरमण
चलने का तो खयाल ही नहीं रखते। जो वर्तमान में हो रहा है '...तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी।' उसको तो देखते ही नहीं। उससे तो तुम चूकते ही चले जाते हो। मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो।
और वर्तमान बड़ा छोटा-सा क्षण है। जरा चूके कि गया। चूके अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।। नहीं कि गया! एक शब्द भी उठा मन में कि वर्तमान गया। तुमने यही परम ध्यान है। अगर इतना भी कहा कि 'अरे! वर्तमान को देखू,' वर्तमान | इसे थोड़ा खयाल में ले लें। कभी बैठे हैं तो बैठे रह जाएं; तो गया। तुमने इतना भी कहा मन में कि मुझे वर्तमान में जागरूक बैठने में ही लीन हो जाएं। भीतर से शब्दों को विदा कर दें, रहना है, तो तुम जब यह कह रहे थे तब वर्तमान जा रहा था। नमस्कार कर लें। कुछ चिंतन भी न करें। आत्मा का भी चिंतन
जो है, वह तो शब्द मात्र से भी चूक जाता है। इसलिए भीतर न करें। यह भी मत सोचें कि मैं आत्मा हूं, शुद्ध-बुद्ध हूं। शब्द न उठे, निशब्द रहे तो ही वर्तमान पकड़ में आता है। क्योंकि वह सब चूकना है। निशब्द रहे और जो क्रिया तुम कर रहे हो, उसमें ही पूरी न चिंतन करें, न शरीर की कोई क्रिया में संलग्न हों, बैठे हैं तो तल्लीनता रहे। जैसे यही परम कृत्य है।
| बैठने में डूब जाएं और भीतर सिर्फ जागे रहें, बस एक खयाल इसीलिए कबीर ने कहा है कि जो खाता-पीता है, वही तेरी रखें कि होश बना रहे. नींद न आ जाए। सेवा है प्रभु! जो उठता-बैठता हूं, वही तेरी परिक्रमा है प्रभु! अगर ध्यान का किसी चीज से विरोध है तो नींद से; और 'खाऊ पिऊ सो सेवा।'
किसी चीज से विरोध नहीं है। संसार छोड़कर मत भागो। बडी अदभत बात कबीर ने कही कि मैं जो खाता-पीता हं. वही| घर-गहस्थी छोडकर मत भागो। इससे कछ लेना-देना नहीं है। तुझे मैंने भोग लगा दिया प्रभु! और भोग कहां लगाऊं? | सिर्फ नींद को गिरा दो। उठता-बैठता हूं, यही तेरे मंदिर की परिक्रमा है; अब और | जब मैं कह रहा हूं, नींद को गिरा दो तो मेरा मतलब यह नहीं है परिक्रमा करने कहा जाऊं? इसका अर्थ हुआ कि अगर क्षण को | कि रात तुम सोओ मत। जब जागो तो परिपूर्णता से जागो। कोई पूरी तरह जीये तो सब हो गया। क्षण से चूके कि सब चूके। आहिस्ता-आहिस्ता चलो, उठो, बैठो एक बात ख क्षण में जागे कि सब पाया।
भीतर होश को सम्हाले रखना है। 'हे ध्याता, तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ अभी नाजुक है। अभी बार-बार खो जाएगा। बोल और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार योग का निरोध सम्हालते-सम्हालते आने लगेगा। फिर धीरे-धीरे तुम पाओगे, करने से तू स्थिर हो जाएगा, तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। जब दिन की जागृति में जागरण सध गया, तो नींद में भी शरीर तो यही परम ध्यान है।'
सो जाएगा, तुम जागे रहोगे। शरीर तो विश्राम करेगा, लेकिन यह परम ध्यान का परम सूत्र!
तुम्हारे भीतर एक प्रहरी जागा रहेगा। 'हे ध्याता, तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर...।' ध्यान के जिस दिन चौबीस घंटे जागरण सध जाता, उसी दिन व्यक्ति लिए शरीर की चेष्टा का कोई प्रयोजन नहीं है।
| बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता। '...न वाणी से कछ बोला' न भीतर शब्द को निर्मित कर। तो जागने में तो जागना पहले साधो. फिर नींद की फिक्र कर क्योंकि ध्यान से उसका भी कोई संबंध नहीं है।
लेंगे। पहले तो जागने से नींद को हटाओ। तुम्हें भी कई दफे '...और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार योग का | लगा होगा कि तुम्हारे भीतर जागरण की कई मात्राएं होती हैं। निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा।'
जैसे समझो कि तुम रास्ते पर जा रहे हो और अचानक एक एक निशब्द शून्य भीतर घेर ले। उस निशब्द शून्य में जागरण सांप रास्ते से निकल जाए तो तुम चौंक पड़ते हो। सांप नहीं का दीया भर जलता रहे, बस! शून्य हो और जागृति हो। निकला था तब तुम किस अवस्था में थे? थोड़ी तंद्रा थी। चले शून्य + जागृति—कि ध्यान हुआ।
जा रहे थे डूबे-डूबे, सोये-सोये; थोड़े-थोड़े जागे, थोड़े-थोड़े ध्यान का यही परम सूत्र है।
सोये। सांप सामने आया, मौत सामने आ गई, एक धक्का
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