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ध्यान हे आत्मरमण
तो पहले तो दलदल से बाहर कर लो। एक बार दलदल से बाहर आश्रम में, वही उसका काम था, और फकीर ने आकर पीछे से हो जाए, मेरे का जाल छूट जाए तो फिर दूसरा काम करने का है, उस पर हमला किया एक लकड़ी और वह यह है कि मैं सोया न रहे।
सम्राट तो बहुत चौंका, उसने कहा, यह आप क्या करते हैं? बाहर का दलदल मिटे, फिर भीतर का दलदल मिटाओ। फकीर ने कहा, ध्यान की शुरुआत आज हुई। अब तुम खयाल बाहर का दलदल है संबंधों का जाल, और भीतर का दलदल है रखना। तुम कुछ भी कर रहे हो...तुम्हारा काम है लकड़ी एक तरह की सुप्ति, एक तरह की निद्रा, एक तरह की तंद्रा। काटकर लाना, बुहारी लगाना, भोजन पकाना, तुम सब करना,
हम ऐसे चल रहे हैं जैसे कोई शराबी चल रहा हो। चल भी रहे लेकिन एक ध्यान रखना कि मैं कभी भी पीछे से हमला करूंगा, हैं, साफ भी नहीं है-अंधेरे में टटोलते से, खोये-खोये से, इसका होश रखना।। सोये-सोये से।
उसने कहा, यह किस तरह का ध्यान हुआ? फकीर ने कहा, तो झकझोरो! पुकारो! खींचो इस भीतर के दलदल से अपने वह तुम फिक्र मत करो। तुम बस इतना होश रखो। को बाहर।
कहते हैं ऐसा एक वर्ष बीता। और वह फकीर अनेक-अनेक महावीर कहते हैं, इसके लिए न तो कोई योगासन करने जरूरी | रूपों से पीछे से हमला करता। धीरे-धीरे होश सम्हलने लगा। हैं। शरीर की कोई क्रिया अपेक्षित नहीं है। न कोई बहुत बड़ा | क्योंकि जब कोई चौबीस घंटे हमले के बीच में पड़ा हो तो कैसे विचारक होना जरूरी है। कोई बड़े विश्वविद्यालयों से बड़ी रहेगा बेहोशी में? वह बार-बार चौंककर इधर-उधर देख उपाधियां लेकर आना जरूरी नहीं है। न शास्त्रों का पठन-पाठन लेता। जरा-सी पीछे से आवाज आती कि वह सजग हो जाता। आवश्यक है। क्योंकि चिंतन यहां काम आता ही नहीं। यहां तो हमले से बचना जरूरी था। बिल्ली भी चलती, कोई हवा का सिर्फ एक चीज काम आती है. और वह जागरण है।
झोंका आता तो भी वह सजग हो जाता। तो तुम जो भी करते हो, अपने छोटे-छोटे कृत्यों में...बुहारी एक वर्ष होते-होते ऐसी हालत हो गई कि जब भी फकीर लगा रहे हो घर में, बस जागकर लगाओ।
हमला करता—इसके पहले कि फकीर हमला करता, उसका एक झेन फकीर हुआ; सम्राट उसके पास आया था सीखने हाथ लकड़ी को पकड़ लेता। हमला करना मुश्किल हो गया। ध्यान। तो उस फकीर ने कहा कि रुको, जब ठीक समय फकीर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा, तमने पहला पाठ सीख आएगा, मैं शुरू करूंगा। उस सम्राट ने कहा, मैं ज्यादा देर नहीं लिया। अब दूसरा पाठ-कि अब रात जरा सम्हलकर सोना, रुक सकता, मेरे पिता वृद्ध हैं उनकी मृत्यु कभी भी हो सकती है। क्योंकि मैं सोते में हमला करूंगा। उन्होंने ही मुझे भेजा है कि उनके जीते-जी मैं ध्यान को उपलब्ध | लेकिन अब सम्राट को भी खयाल में आ गया था कि एक बड़ी हो जाऊं। तो जल्दी करें।
गहरी शांति, अकारण-भीतर भरी थी। एक बड़ा प्रसाद, बड़ी उस फकीर ने कहा, अगर जल्दी की तो देर हो जाएगी। जल्दी प्रसन्नता। कुछ सीधा संबंध भी नहीं दिखाई पड़ता था कि आदमी करने में बड़ी देर हो जाती है। यह तो काम धीरज का है। तुमने किसी के पीछे से हमला करे तो प्रसाद का क्या संबंध? इतने अगर समय की मांग की तो फिर न हो सकेगा। तो तम पहले तय आनंद का क्या कारण? लेकिन आनंद ही आनंद था। जरूर कर लो। मैं तो तुम्हें स्वीकार ही तब करूंगा शिष्य की तरह, जब इसमें भी कुछ राज होगा। तुम मुझ पर छोड़ दो। जब समय परिपक्व होगा, जब मौसम रात कुछ दिन तो चोटें खायीं, फिर धीरे-धीरे नींद में भी आएगा और जब मैं समझूगा, कि अब शुरू करना पाठ, शुरू | सम्हलकर सोने लगा। नींद में भी, कमरे में फकीर प्रवेश करता कर दूंगा।
तो वह आंख खोलकर बैठ जाता। गहरी नींद सोया होता, घुर्राटे कोई और उपाय न देखकर सम्राट ने स्वीकार कर लिया। तीन | लेता होता, लेकिन जरा आवाज होती कि वह चौंक जाता। साल, कहते हैं बीत गए और फकीर ने ध्यान की बात ही न की। तुमने देखा किसी मां को? तूफान हो, आंधी हो, नींद नहीं लेकिन एक दिन फकीर आया और सम्राट बुहारी लगा रहा था | खुलती। बच्चा जरा रो दे, नींद खुल जाती है। जिस तरफ ध्यान
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