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जिन सूत्र भाग: 2
है तुम्हारे भीतर । संसार से तुम्हारी पकड़ छूटी कि जो सदा से मिला हुआ था, उसका पता चलता है। जो मिला ही हुआ था, उसकी प्रत्यभिज्ञा होती है, उसकी पहचान होती है।
मोक्ष कुछ ऐसा नहीं है, जिसे तुमने खो दिया हो । मोक्ष स्वभाव है । खोने का कोई उपाय ही नहीं। कहीं भूलकर, चूककर रख आये हो, ऐसा कोई उपाय नहीं है। तुम हो मोक्ष।
इसलिए इनके विपरीत कोई दो पहिये और हैं? ऐसा पूछना ही ठीक नहीं है। संसार मोक्ष के विपरीत नहीं है, इसलिए संन्यासी संसार का विरोधी नहीं है। जो संन्यासी संसार का विरोधी है, वह अभी संसार में है। उसने राग को द्वेष से बदल लिया। कुछ लोग धन को राग करते थे, वह द्वेष करने लगा। कुछ लोग देह को राग करते थे, वह द्वेष करने लगा। सांसारिक जिनको वह कहता है, जो-जो करते थे, उससे उलटा करने लगा।
संन्यासी अगर संसार का विरोधी है मैं तुमसे कहता हूं, संसार में है। सिर के बल खड़ा होगा, मगर खड़ा बाजार में है। हिमालय पर बैठा हो, लेकिन खड़ा बाजार में है। भाग जाए स छोड़कर, लेकिन जिससे भाग रहा है, उससे छुटकारा नहीं हुआ है। भीतर मन में उसकी आकांक्षा शेष है । उसी आकांक्षा को
अगर मोक्ष कहीं संसार से अलग है तो फिर भागना पड़े गुफाओं में, कंदराओं में खोजना पड़े, तपश्चर्या में आंखें बंद करके कहीं दूर, जहां कोई न हो, वहां जाना पड़े। लेकिन मोक्ष यहीं है। मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है।
बस दीये का आना, आंख का खुलना, दिखाई पड़ जाना सार का असार से भिन्न - पर्याप्त है। मोक्ष
बोध |
'कहते हैं आप, राग और द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित होता है...।' निश्चित ही । संसार दो के बिना निर्मित नहीं
बाने के लिए तो विपरीत कर रहा है।
संन्यासी उसे कहता हूं मैं, जो संसार का विरोधी नहीं है, जो होता । संसार एक से निर्मित ही नहीं हो सकता। एक पहिये से संसार में जागा; जिसने संसार को भर - नजर देखा |
कहीं कोई गाड़ी चली है ?
महावीर कहते हैं, जो सुपरिचित हुआ; जिसने संसार की व्यर्थता समझी।
संसार के विपरीत किसी चीज को पकड़ने का सवाल ही नहीं है, संसार की व्यर्थता स्पष्ट हो जाए तो जो शेष रह जाता है - इस कूड़े-कर्कट के बह जाने के बाद, जो जलधार भीतर शेष रह जाती है, वही मोक्ष है।
समझ आ गई तो मुक्ति आ गई। नासमझी रही तो बंधन रहा । नासमझी अर्थात बंधन । समझदारी अर्थात मोक्ष |
विपरीत की भाषा ही भूल जाओ। विरोध की भाषा ही भूल जाओ । शत्रुता का रोग ही छोड़ो। सिर्फ भर आंख देख लेना है, ठीक से पहचान लेना है। जहां हो, वहीं जागकर देख लेना है।
उस जागरण में जो भी व्यर्थ है, वह अपने से छूट जाता है, गिर जाता है। एक अंधेरे कमरे में तुम बैठे हो, हीरे भी पड़े हैं और कूड़ा-कर्कट भी पड़ा है, फिर कोई दीया लेकर भीतर आ गया । जब तक दीया न था तब तक पता न था, कूड़ा-कर्कट क्या है, हीरे क्या हैं? हो सकता है, अंधेरे में तुमने कूड़े-कर्कट की तो गठरी बांध ली हो और हीरों का खयाल ही न आया हो। फिर कोई दीया लेकर आ गया, आंख मिली, दृष्टि खुली, दर्शन हुआ। तुम हंसोगे, अगर तुमने अपनी गठरी में कूड़ा-कर्कट बांध रखा था। जल्दी गांठ खोलोगे। जल्दी गठरी खाली कर लोगे। जल्दी से हीरे भर लोगे। इसमें कुछ त्याग थोड़े ही होगा ! इसमें कुछ अभ्यास थोड़े ही होगा ! इसमें कोई श्रमसाध्य प्रक्रिया थोड़े ही होगी!
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यह गाड़ी शब्द बड़ा अदभुत है। इस पर तुमने शायद कभी सोचा न हो। गाड़ी का मतलब होता है, जो गड़ी है। मगर हम चलती हुई चीज को गाड़ी कहते हैं। गाड़ी तो चल ही नहीं सकती। जो गड़ी है, वह चलेगी कैसे ? वृक्ष चलते हैं ? गड़े हैं। चलती चीज को हम गाड़ी क्यों कहते हैं ? बड़ा मधुर व्यंग्य है उस शब्द में ।
संसार चलता तो है, पहुंचता कहीं नहीं लगता है चलता है; ऐसे गड़ा है। ऐसे सपने में ही चलना होता है, यथार्थ में कोई चलना नहीं होता। भाग-दौड़, आपाधापी ! जब आंख खुलती है, तुम पाते हो वहीं के वहीं खड़े हो, अपनी खाट पर पड़े हो । सब सपने में दौड़-धूप की। बड़े आकाश छान डाले। जब सुबह आंख खुली तो पाया, अपने बिस्तर में पड़े हैं।
तो संसार गाड़ी है। ऐसे तो गड़ा है। यथार्थ में तो गड़ा है,
ज्ञान मुक्ति है।
तो संसार को छोड़ना नहीं, न संसार के विपरीत सोचना । वह स्वप्न में चल रहा है, कल्पना में चल रहा है, कामना में चल रहा
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