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जिन सूत्र भागः 2
होता है, उस तरफ संबंध हो जाता है।
तो एक आह्लाद बचता है-असीम! अपरिभाषित! तुम यहां सारे लोग सो जाओ आज रात, फिर मैं आकर आज मिलन-त्यौहार मनाये कौन वहां? पुकारूं, 'राम', तो किसी को सनाई न पड़ेगा, लेकिन जिसका। बरस रही रसधार कि गाये कौन वहां? नाम राम है उसे सुनाई पड़ जाएगा। क्योंकि राम से उसका एक वीणा को स्वरकार बजाये कौन वहां? सेतु बंधा है, एक संबंध बंधा है।
बरस रही रसधार कि गाये कौन वहां? एक साल बीतते-बीतते ऐसा हो गया कि फकीर नींद में भी अमत बरसता है। इतना कहने को भी कोई नहीं बचता कि हमला न कर पाता। हमला करता कि इसके पहले ही हमला | अमत बरस रहा है कि गाये कौन वहां? बरस रही रसधार। रोकने का इंतजाम हो जाता।
वीणा बजती है. बजानेवाला भी नहीं रह जाता। एक दिन सबह की बात है, सर्दी के दिन! फकीर. बढ़ा फकीर वीणा को स्वरकार बजाये कौन वहां? वृक्ष के नीचे धूप में बैठा कुछ पढ़ रहा था, और वह युवक इसको हिंदुओं ने अनाहत नाद कहा है-अपने से हो रहा संन्यासी–सम्राट–बुहारी लगा रहा था। बुहारी लगाते- नादः ओंकार। लगाते उसे खयाल आया कि दो साल से यह आदमी सब तरह से इसको महावीर ने स्वभाव कहा है-अपने से जो हो रहा। मुझ पर चोट कर रहा है, लाभ भी बहुत हुए, लेकिन मैंने कभी | आनंद हमारा स्वभाव है। हम सच्चिदानंद-रूप हैं। लेकिन इस यह नहीं सोचा कि मैं भी इस पर कभी हमला करके देखू, इस बूढ़े रूप को जानने के लिए जो आंख चाहिए ध्यान की, वह हमारे पर, यह भी जागा हुआ है या नहीं?
पास नहीं है। या है भी, तो बंद पड़ी है। ऐसा खयाल भर आया, कि उस बूढ़े ने अपनी किताब पर से सौ-सौ बार चिताओं ने मरघट पर मेरी सेज बिछाई आंख उठाई और कहा, नासमझ! ऐसा मत करना, मैं बूढ़ा सौ-सौ बार धूल ने मेरे गीतों की आवाज चुराई आदमी हूं।
लाखों बार कफन ने रोकर मेरा तन शंगार किया पर वह बहुत घबड़ा गया। उसने कहा, 'हआ क्या? मैंने तो एक बार भी अब तक मेरी जग में मौत नहीं हो पाई सिर्फ सोचा।' उसने कहा, 'जब जागरूकता बहुत सघन होती है तो जैसे अभी तू पैर की आवाज को पकड़ने लगा, ऐसे विचार मैं जीवन हूं, मैं यौवन हूं की आवाज भी पकड़ में आने लगती है। विचार की भी तो जन्म-मरण है मेरी क्रीड़ा आवाज है। विचार की भी तो तरंग है। विचार से भी तो घटना इधर विरह-सा बिछुड़ रहा हूं घटती है। जैसे तू अभी नींद में भी जाग जाता है, मेरा पैर नहीं| उधर मिलन-सा आ मिलता हूं। पड़ता तेरे कमरे के पास कि तू बैठ जाता है तैयार होकर। मैं इतने जिसे तुमने अब तक समझा है तुम हो, वे तो केवल सतह पर सम्हलकर चलता हूं, कोई उपाय नहीं। जरा-सी आवाज तुझे उठी तरंगें हैं। और जो तुम हो उसका तुम्हें पता नहीं है। उसका न चौंका देती है। एक दिन तेरे जीवन में भी ऐसी घड़ी तो कभी जन्म हुआ और न कभी मृत्यु हुई। आएगी-अगर जागता ही गया—कि विचार की तरंग भी उस शाश्वत को जगाओ। पर्याप्त होगी।
उस शाश्वत में जागो। ध्यान का अर्थ है : जागरण।
उस शाश्वत को बिना पाए विदा मत हो जाना। जीवन उसको जैसे-जैसे तुम जागते जाते हो, वैसे-वैसे जीवन की सूक्ष्मतम पाने का अवसर है। जिसने ध्यान का धन पा लिया, उसने जीवन तरंगों का बोध होता है। परमात्मा जीवन की आत्यंतिक तरंग है, में कुछ कमा लिया। और जो और सब कमाने में लगा रहा और आखिरी सूक्ष्म तरंग है। तुम्हारी जब जागरण की आखिरी गहराई ध्यान के धन को न कमा पाया, उसने जीवन व्यर्थ गंवा दिया। आती है, तब परमात्मा का शिखर तुम्हारे सामने प्रगट होता है। इस अवसर से चूकना मत। पहले बहुत बार चूके हो, इसलिए उस घड़ी में न तो तुम बचते, न परमात्मा बचता। उस घड़ी में चूकने की संभावना बहुत है। क्योंकि चूकने की आदत बन गई
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