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ध्यान हे आत्मरमण
सकेगी। अगर कामभोग के अनुभव से ही आयी हो तो टिक पैरों में चलने की सामर्थ्य नहीं रह जाती और मन में दूर पहाड़ जाएगी। मंदिर में प्रवचन सुनकर, शास्त्र पढ़कर, एक चढ़ने की कल्पना और सपने रह जाते हैं। तब बड़ी दविधा पैदा भावाविष्ट अवस्था में तुमने ले ली हो, टिकेगी नहीं, टूटेगी। होती है। इसी दुविधा के कारण बूढ़े निंदा करते हैं। उनकी निंदा तुमने तो हुक्मे-तकें-तमन्ना सुना दिया
में अगर गौर करो, तो ईर्ष्या पाओगे। बूढ़ा जब निंदा करता है किस दिल से आह तर्के-तमन्ना करे कोई!
जवान की, तो वह सिर्फ ईर्ष्या कर रहा है।। संत तो कहे चले जाते हैं, छोड़ो यह इश्क का जाल! छोड़ो यह | डी. एच. लारेन्स ने कहीं लिखा है कि जब मैं छोटे बच्चों को प्रेम की झंझट! छोड़ो यह भोग!
वृक्षों पर चढ़ा देखता हूं तो तत्क्षण मेरे मन में होता है, उतरो! गिर तुमने तो हुक्मे-तकें-तमन्ना सुना दिया
पड़ोगे! लेकिन तब मैने बार-बार यह कहकर सोचा कि मामला तुमने तो कह दिया, दे दिया आदेश कि छोड़ दो प्रेम! | क्या है? मैं अपने भीतर खोजं तो। तो मझे पता चला कि छोटे किस दिल से आह तर्के-तमन्ना करे कोई!
बच्चों को वृक्ष पर चढ़ते देखकर मुझे ईर्ष्या होती है। मैं नहीं चढ़ लेकिन जिसे जीवन का अभी कोई अनुभव नहीं है, वह कैसे पाता अब। उम्र न रही। अब हाथ-पैर में वैसी लोच न रही, न प्रेम को छोड़ दे?
वैसा साहस रहा: न खतरा मोले लेने का वैसा निर्बोध चित्त जिसे जाना ही नहीं, उसे छोड़ोगे कैसे? जिसे पाया ही नहीं. | रहा। तो कहता तो हैं कि 'उतरो, गिर पड़ोगे,' लेकिन भीतर उसे छोड़ोगे कैसे? एक बात को खयाल रखना, जो पाया हो कहीं कोई ईर्ष्या पंख फड़फड़ाती है, कि मैं नहीं चढ़ पाता अब। वही छोड़ा जा सकता है। जो तुम्हारी मुट्ठी में हो उसी को गिराया जब मैं नहीं चढ़ पाता तो कोई भी न चढ़े। जा सकता है। जो तुम्हारे पास हो उसे ही फेंका जा सकता है। बूढ़ों की निंदा में तुम अकसर पाओगे, जो वे नहीं कर पाते हैं,
लेकिन अकसर ऐसा होता है कि बूढ़े बच्चों को सिखाते हैं। कोई भी न करे। इन्हीं से बच्चे शिक्षित होते हैं। और बच्चे उन इससे बड़ी झंझट पैदा होती है। बूढ़े बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं। चीजों को छोड़ने का विचार करने लगते हैं, जिनका अभी
और बूढ़े भी कुछ जानकर दे रहे हैं, ऐसा नहीं है। जैसे जवानी में अनुभव ही नहीं हुआ है। गैर-अनुभव से छोड़ी गई कोई भी बात नशा होता है राग का, वैसे बुढ़ापे में नशा होता है वैराग्य का। न लौट-लौटकर आ जाएगी; फिर-फिर तुम्हें पकड़ेगी; फिर-फिर तो जवानी के राग में कोई समझ है, न बुढ़ापे के वैराग्य में कोई तुम्हें सताएगी। समझ है। जैसे जवानी में आदमी अंधा होता है, वैसे बुढ़ापे में भी महावीर के इस सूत्र को खूब हृदय में हीरे की तरह सम्हालकर अंधा होता है। बुढ़ापे का अंधापन बुढ़ापे का है, जवानी का रख लेनाअंधापन जवानी का है।
'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं, निस्संग, निर्भय और बढ़े जवानों की निंदा किए चले जाते हैं। कभी उन्होंने मन में आशारहित हैं...।' सोचा, कि जब तुम जवान थे, तुम्हारे बूढ़ों ने भी ऐसा ही किया जो ठीक से परिचित हुआ संसार से, जिसने सब कडुवे-मीठे था; तुमने सुना था? अगर तुम इतना भी न समझ पाए कि | अनुभव लिए, जो डरा नहीं, जो निस्संकोच उतर गया अंधेरों में, तुम्हारे बूढ़ों की तुमने नहीं सुनी, तुम्हारे जवान बेटे तुम्हारी कैसे जो गड्ढों में भी गिरा और भयभीत न हुआ, जिसने सारे जीवन के सुन लेगे, तो तुम कुछ भी नहीं समझ पाए। तो तुम बूढ़े...धूप में अनुभव लेने की ठानी कि परिचित तो हो लं! इस जीवन में आया बाल पक गए होंगे तुम्हारे, सुपरिचित नहीं हो।
हं, ठीक से जान तो लूं, कि क्या है? जिसने उधार वचन न जो बूढ़ा सुपरिचित है, वह युवकों से कहेगा, ठीक से भोगना; सीखे, और उधार सिद्धांतों का बोझ न ढोया; और शास्त्रों से न जागकर भोगना; होश से भोगना। वह यह नहीं कहेगा कि भोग जीया, जीवन के शास्त्र को ही शिक्षा देने का जिसने मौका और छोड़ना। वह कहेगा, जब भोगने के दिन हैं तो खूब होश से भोग | अवसर दिया, वह अपने आप निस्संग हो जाएगा। लेना। कहीं ऐसा न हो कि भोगने के दिन निकल जाएं और भोग | निस्संगता का अर्थ है, जीवन को ठीक से पहचानोगे तो तुम की आकांक्षा भीतर शेष रह जाए तो बड़ी झंझट पैदा होती है। पाओगे, तुम अकेले हो। साथ होना धोखा है। हम सब अकेले
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