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जिन सूत्र भाग: 2
जीसस की हवा तुम्हें पुकार बन जाए, आह्वान बन जाए ! कि महावीर की आंख तुम्हारी आंख से मिले और तुम्हारी अतल गहराइयां कंपित उठें, तुम्हारे प्राणों में कोई नाद बजने लगे - स्वाभाविक है ।
लेकिन तुम यह भी तो पूछो कि किन पीड़ाओं से, किस तपश्चर्या से ? महावीर का शब्द सुनकर तुम्हारे भीतर मधुर वातास फैल जाए; महावीर का शब्द शब्द तुम्हारे भीतर मधु घोलने लगे — ठीक ! लेकिन यह भी तो पूछो कि ये शब्द किस मौन से आए हैं? किस ध्यान में इनका जन्म हुआ है ? किस साधना में गर्भित हुए हैं? कहां से पैदा हुए हैं।
शब्द को ही पकड़कर तुम याद कर लो तो मुर्दा शब्द तुम्हारे मस्तिष्क में अटका रह जाएगा, शोरगुल भी करेगा; लेकिन | तुम्हारे भीतर वैसी शांति पैदा न हो सकेगी, जो महावीर के भीतर है। क्योंकि शब्द कारण शांति पैदा नहीं हुई, शांति के कारण शब्द पैदा हुआ है।
महावीर की वीतरागता ऐसे ही आकश से नहीं टपक पड़ी है, छप्पर नहीं टूट गया है। महावीर की वीतरागता इंच-इंच सम्हाली गई है, साधी गई है। और जीवन के अनुभव में उसकी जड़ें हैं। अनुभव पृथ्वी है।
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तुम किसी पौधे से प्रभावित हो गए, काट लाए पौधा ऊपर से और जड़ें वहीं छोड़ आए, तो थोड़ी-बहुत देर पौधा हरा रह जाए, लेकिन कुम्हलाने लगेगा; ज्यादा देर जीवंत नहीं रह सकता और अगर तुम जड़ें ले आओ, पौधा छोड़ भी आओ तो भी चलेगा। क्योंकि जड़ें आरोपित करते ही तुम्हारे घर में भी पौधा अंकुरित होने लगेगा।
'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं...।'
परिचित भी नहीं कहते; महावीर कहते हैं - 'सुपरिचित ।' परिचित तो हम सभी हैं थोड़े-बहुत, लेकिन नींद- नींद में हैं। कुछ हो भी रहा है, कुछ पता भी चल रहा है, लेकिन सब धुंधला-धुंधला है। न तो आंखें प्रगाढ़ हैं, न ज्योति जली है, न एक-एक अनुभव को पकड़कर निचोड़ लेने की कला सीखी है। तो रोज हम वही किए जाते हैं।
तुमने कभी खयाल किया ? नया क्या करते हो? जो कल किया था, वही फिर दोहरा लेते हो। कैसे आदमी हो तुम? यह तो यंत्र जैसा हुआ। कल क्रोध किया था, आज भी कर लिया।
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और कल पछताए थे क्रोध करके, आज भी पछता लिए । कल भूल हो गई थी, रो लिए थे, क्षमा मांग ली थी। आज फिर भूल हो गई, फिर रो लिए, फिर क्षमा मांग ली। ऐसे वर्तुलाकार तुम कब तक भटकते रहोगे ?
इसको ही पूरब में हमने संसार कहा है – संसार-चक्र । गोल-गोल घूमता रहता है, कोल्हू की बैल की तरह घूमता रहता है। बैल को शायद लगता हो कि गति हो रही है, विकास हो रहा है। कहीं जा रहा हूं, कहीं पहुंच रहा हूं। लेकिन जरा देखो, कहां पहुंच रहा है ! चलता जरूर है, मगर बंधा है एक ही केंद्र से । उसी के आसपास चक्कर काटता रहता है।
तुम जरा गौर से देखो, तुम्हारे जीवन में विकास है ? उत्क्रांति है? तुम कहीं जा रहे ? कुछ हो रहा ? कि सिर्फ उसी उसी को पुनरुक्त कर रहे हो ? वही राहें, वही लीक ! जैसे कल सुबह उठे थे, वैसे आज सुबह उठ आए। जैसे कल रात सो गए थे, आज रात भी सो जाओगे। कितनी बार सूरज ऊगा है; और तुम्हें वहीं का वहीं पाता है!
तो सुपरिचित नहीं हो; परिचित तो हो । सुपरिचित का अर्थ है कि जो अनुभव तुम्हारे जीवन में गुजरा उसके गुजरने के कारण ही अब तुम और हो गए। तुमने उससे कुछ सीखा, कुछ संपत्ति जुटाई। अगर तुमने आज क्रोध किया तो तुमने उस क्रोध से कुछ सीखा। कल अगर क्रोध करना भी पड़ा तो ठीक आज जैसा नहीं करोगे । उसमें कुछ फर्क होगा, भेद होगा, सुधार होगा, तरमीम होगी, संशोधन होगा, कुछ छोड़ोगे, कुछ जोड़ोगे |
तो ठीक है, विकास हो रहा है। अगर ऐसे ही क्रोध से सीखते गए... सीखते गए... सीखते गए तो एक दिन तुम पाओगे कि क्रोध अपने आप, जैसे-जैसे तुम सुपरिचित हुए, विदा हो गया है। जीवन का ज्ञान क्रांति है।
'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है...।'
इसलिए खयाल रखना, किसी के प्रभाव में कुछ कसम मत ले लेना। किसी के प्रभाव में कुछ छोड़ मत देना ।
अकसर ऐसा होता है, जाते हो तुम सुनने, सत्संग में बैठते हो, बातें प्रभावित कर देती हैं! कोई कसम खा लेता है ब्रह्मचर्य की, लेकिन ब्रह्मचर्य की कसम मंदिर में थोड़े ही खानी होती है ! अगर तुम मुझसे पूछो तो ब्रह्मचर्य की कसम वेश्यालय में किसी ने खायी हो तो शायद टिक भी जाए, मंदिर में खायी नहीं टिक
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