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जिन सूत्र भागः
मन तो फिर कंप गया। पहले धन के लिए कंपता था, अब धन | ठहर जाओ। के विरोध में कंप गया। पहले खोजते थे सुंदर देह, सुंदर स्त्री, | यह तो उदाहरण हुआ। ऐसा ही जीवन की हर चीज में है। धन सुंदर पुरुष; अब अपने को समझा लिया कि दुख ही दुख पाया। तो धन है। न तो कहो कि यही मेरा सर्वस्व है; और न कहो, यह
तो तुम जाओ त्यागी-वैरागियों के पास, तुम उन्हें वहां शरीर क्या है! यह तो मिट्टी ही है। कहो ही मत कुछ। कहा, कि मन की निंदा करते हुए पाओगे। और तुम यह भी देख पाओगे कि बना। तुमने इधर निर्णय लिया कि मन की ईंट रखी। तुम सिर्फ निंदा में बड़ा रस है। शरीर के भीतर मांस-मज्जा है, कफ-पित्त देखते रहो; द्रष्टा बनो। चुनाव मत करो। बीच में खड़े रहो; न है, दुर्गंध है, मल-मूत्र है, इसकी चर्चा करते हुए तुम त्यागियों को इधर जाओ, न उधर। पाओगे। जैसे भोगी चर्चा करता है सुंदर आंखों की, स्वर्ण जैसी देखा ! पेंडुलम घड़ी का रुक जाए तो घड़ी रुक जाती है। बायें काया की, स्वर्गीय सुगंध की, वैसे ही त्यागी भी चर्चा करता है। जाए, दायें जाए, तो घड़ी चलती रहती है। पेंडुलम के चलने से त्यागी चर्चा करता है शरीर में भरे मल-मूत्र की! यह तो गंदगी घड़ी चलती है। मन के गतिमान होने से मन निर्मित होता है। मन का टोकरा है। यह तो चमड़ी ही ऊपर ठीक है, बाकी सब भीतर डोलता नहीं, अडोल हो जाता है। वहीं ध्यान का जन्म होता है। गंदा भरा है। चमड़ी के धोखे में मत आओ।
_ 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं; निस्संग, निर्भय और लेकिन दोनों का राग शरीर से है। जिसको हम विराग कहते हैं, आशारहित हैं, तथा जिनका मन वैराग्य से युक्त है, वही ध्यान में वह भी सिर के बल खड़ा हो गया राग है; शीर्षासन करता हुआ सुनिश्चल भलीभांति स्थित होता है'। राग है। शरीर से छुटकारा नहीं हुआ। बंधे शरीर से ही हैं। जो इसलिए एक बात खयाल में ले लेना—'जो संसार के स्वरूप अभी कह रहा है कि शरीर मल-मूत्र की टोकरी है, अभी शरीर से से सुपरिचित है...।' उसका लगाव बना है। वह इसी लगाव को तोड़ने के लिए तो | महावीर कहते हैं, संसार से वही मुक्त हो सकता है, जिसने अपने को समझा रहा है कि शरीर मल-मूत्र की टोकरी है। कहां जल्दबाजी नहीं की; जो संसार के स्वभाव से सुपरिचित है। जाता है पागल! शरीर में कुछ भी नहीं है। वह तुम्हें नहीं समझा कच्चे-कच्चे भागे, बिना पके वृक्ष से छूट गए—पीड़ा रह रहा है, वह अपने को ही समझा रहा है तुम्हारे बहाने। वह शरीर जाएगी। किसी की सुनकर संसार छोड़ दिया; अपने जानने, की निंदा करके अपने भीतर जो छिपी वासना है, उस पर नियंत्रण | अपने अनुभव से नहीं छोड़ा, किसी के प्रभाव में छोड़ दिया, तो करने की कोशिश कर रहा है।
ऊपर-ऊपर छूटेगा, भीतर-भीतर संसार खींचता रहेगा। निंदा हम उसी की करते हैं, जिससे हम डरते हैं। दमन भी हम इसलिए महावीर का यह सूत्र अति मूल्यवान है, 'जो संसार के उसी का करते हैं, जिससे हम भयभीत हैं । लेकिन भयभीत हम स्वरूप से सुपरिचित हैं, वे ही केवल वीतरागता को उपलब्ध हो उसी से होते हैं, जिसमें हमारा राग है।
सकते हैं।' इस सारी व्यवस्था को समझना जरूरी है। इसलिए महावीर | वस्तुतः जो संसार से परिचित हो गया, वह वीतराग न होगा तो कहते हैं, 'न तो अनुकूल विषयों में राग-भाव करे, न प्रतिकूल और करेगा क्या? फिर कोई उपाय नहीं। वीतराग-भाव तुम्हारा विषयों में द्वेष-भाव करे।'
निर्णय नहीं है, तुम्हारे जीवन-अनुभव का निचोड़ है। न तो कहो कि शरीर स्वर्ण की काया है, न कहो कि मल-मूत्र वीतराग-भाव राग के विपरीत तुम्हारा संकल्प नहीं है; राग, द्वेष की टोकरी है। चुनो ही मत-इधर या उधर। डोलो ही मत। सब के अनुभव से तुमने पाया, कुछ सार नहीं है; इस अनुभव शरीर जो है, है। तुम इसके संबंध में कोई धारणा मत बनाओ का नाम ही वीतरागता है।
और कोई व्याख्या मत करो। तथ्य को तथ्य की भांति देखो। न इस पर मेरा भी बहुत जोर है। जहां रस हो वहां से भागना तो इसके प्रशंसा के गीत गाओ, न तो स्तुति में ऋचाएं रचो, और मत। रस का पूरा अनुभव कर लेना। दूसरे क्या कहते हैं, इसकी न निंदा में गालियां निकालो। न तो शरीर गाली के योग्य है, और चिंता मत करना क्योंकि दूसरों का अनुभव तुम्हारा अनुभव नहीं न स्तुति के योग्य है। शरीर बस, शरीर है। जैसा है, उतने पर बनेगा। अगर तुम्हें अभी भोजन में रस हो तो रस ले लेना। रस
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