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जिन सत्र भाग:2
है। इसलिए महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है। जैन होते। अगर तुम जंगल में पाले गये होते और कोई तुमसे वत्थू सहावो धम्म। वस्तु के स्वभाव को जान लेना धर्म है। कहता नहीं कि तुम सुंदर हो कि असुंदर, तो तुम कौन होते? तुम्हारा जो स्वभाव है, उसको जान लेना तुम्हारा धर्म है। जैन | सुंदर होते कि असुंदर होते? कोई तुमसे कहता नहीं कि बुद्ध हो
और हिंदू और मुसलमान नहीं, तुम कौन हो इसे पहचान लेना | कि बुद्धिमान, तो तुम कौन होते? यह सब तो सिखावन है। धर्म है।
सिखावन की पर्तों को तोड़कर....तो ध्यान है कुदाली, खोद देना तुम जवानी हो
है सारे संस्कारों को, पहुंच जाना है जलस्रोत तक। जैसे ही तुम कि शैशव
जलस्रोत तक पहुंचे कि एक अभिनव जगत का आविर्भाव होता आप अपना पाठ फिर दोहरा रहा है?
है। पहली दफा अपने पर आंख पड़ती है। पहली दफा भराव जिंदगी हो,
आता है। पहली दफा परितृप्ति, परितोष। या सुनहला रूप धर कर
सलिल कण हूं कि पारावार हूं मैं मृत्यु विचरण कर रही है?
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं कौन हो तुम? क्या है तुम्हारा नाम? कहां से आते हो? कहां बंधा हूं, स्वप्न हैं, लघु वृत्त में हूं को जाते हो? तो एक तो हमारे ऊपर पड़ी हुई पर्ते हैं, नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं कंडीशनिंग, संस्कार। इन पर्तों की गहरी गहराई में कहीं हमारा यह जो बंधन है तुम्हारे ऊपरस्वरूप दब गया है। जैसे हीरे पर मिट्टी चढ गयी हो। मिट्टी पर बंधा है, स्वप्न हैं, लघवत्त में हैं मिट्टी चढ़ती चली गयी हो। हीरा बिलकुल खो गया हो। फिर | तो एक छोटी-सी सीमा बन गयी है, भी खो तो नहीं जाता, मिट्टी हीरे को मिटा तो नहीं सकती, दब नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं जाता है।
नहीं तो आकाश-जैसे बड़े हो तुम। महावीर कहते हैं, आत्मा सिर्फ दब गयी है। ध्यान से उस दबे सलिल कण हूं कि पारावार हूं मैं तक कुआं खोदना है। अपने भीतर सारी पर्तों को तोड़कर उस स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं जगह पहुंचना है जहां तोड़ने को कुछ भी न रह जाए।
समाना चाहती जो बीन उर में ऐसा समझो कि जो दूसरों ने तुम्हें बताया है कि तुम हो, वही विकल वह शून्य की झंकार हूं मैं छोड़ना है, वही बाधा है। स्वयं मैं कौन हूं, जानने के लिए वह भटकता खोजता हूं ज्योति तम में सब छोड़ देना होगा, जो दूसरों ने तुम्हें बताया है कि तुम हो। सुना है ज्योति का आगार हूं मैं दूसरों को अपना पता नहीं, तुम्हारा क्या पता होगा? दूसरों को | लेकिन कब तक सुनोगे? जानोगे कब? तुम्हारा कोई पता नहीं है। नाम दे दिया है, क्योंकि नाम के बिना सुना है ज्योति का आगार हूं मैं काम नहीं चलता। कोई नाम तो चाहिए। तो एक लेबिल लगा सुना है कि परमात्मा हूं। सुना है कि आत्मा हूं। सुना है कि दिया है। सुविधा हो गयी। पुकारने में व्यवस्था हो गयी। मोक्ष मेरे भीतर बसा हैचिट्ठी-पत्री लिखने के लिए आसानी हो गयी। एक सुना है ज्योति का आगार हूं मैं पता-ठिकाना बना लिया है। यह सब कृत्रिम है। यह स्वभाव जानोगे कब? ध्यान जानने की प्रक्रिया है। नहीं है। अगर तुम जंगल में रखे गये होते और किसी ने तुम्हारा | लवण व्व सलिलजोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स। | नाम न पुकारा होता, तो तुम्हारे पास कोई नाम होता? तुम्हारे | तस्स सुहासुहडहणो, अप्पाअणलो पयासेइ।। पास कोई नाम न होता। अगर तुम जंगल में पाले गये होते और | 'जैसे नमक गल जाए, ऐसे ध्यान की अग्नि में सब अतीत किसी ने तुम्हें बताया न होता कि तुम हिंदू हो, कि मुसलमान, कि कर्म जल जाते हैं।' जैन, तो तुम कौन होते? न तुम हिंदू होते, न मुसलमान होते, न जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिक्कमो।
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