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गुरु हे द्वार
तरफ पड़े। कभी भटके भी तो मंदिर से ही भटके। कभी दूर भी कहां खून गिरता है—पत्थर पर गिरता है, कि लाश पर गिरता गये, तो परमात्मा से ही भटके, लेकिन चेष्टा उसी की तरफ जाने | है, कि मंदिर पर गिरता है-कहां गिरता है, इससे क्या फर्क की लगी थी। हारे भी बहुत बार, पराजित भी बहुत बार हुए, गिरे पड़ता है ? भी बहुत बार, विषाद भी आया, हताशा भी आयी, लेकिन यह खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा
र्ग पर घटा है। और अंतिम निर्णय में तम पाओगे. ऐसा ही मैं तमसे कहता हं_श्रद्धा फिर श्रद्धा है. टपकेगी तो | इस सबने ही तुम्हें मार्ग को खोजने में सहायता दी है। कुछ भी जम जाएगी। और जहां श्रद्धा जमी, वहीं भगवान है। श्रद्धा होनी व्यर्थ नहीं गया है। कुछ व्यर्थ जा नहीं सकता।
चाहिए। असली बात भीतर है, असली बात अंतर्तम की है। जीवन के परम अर्थशास्त्र में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता है। अगर वहां न हो, तो कहीं भी भगवान नहीं है। अगर वहां श्रद्धा | लेकिन पता तो तब चलता है जब हम पहुंच गये-आखिरी हो, तो सब कहीं, सब दिशाओं में वही है। भीतर हो, तो बाहर घड़ी। तब हम लौटकर देख सकते हैं कि अरे, अगर मैं भटका न भी वही है। भीतर न हो, तो फिर बाहर कहीं भी नहीं है। फिर
श्किल होता! कि मैंने धन से पाने की | जाओ तीर्थयात्रा, काबा और काशी, कोई अंतर न पड़ेगा। तुम कोशिश की, वह भी जरूरी था। वह भी शिक्षण था। कि मैंने व्यर्थ ही भटकोगे। घर आओ, कहीं और नहीं जाना है। तुम्हारे प्रेम में प्रार्थना खोजी, वह भी शिक्षण था। उस सबसे बचकर भीतर है तीर्थ। अगर आ जाता, तो इस मंदिर तक आ ही नहीं सकता था। | फिर खयाल रखना, आदमी आदमी में बड़े भेद हैं। तो आदमी
इसलिए मैं तो कहता हूं, जिस तरह तुम्हें याद आ सके उसी आदमी के ईश्वर में भी भेद होंगे। चांद निकला आकाश तरह याद करो। सब में वही है। और सबसे उसी की खोज चल | में-पूर्णिमा की रात, शरद पूनो-हजारों, करोड़ों प्रतिबिंब रही है। श्रद्धा चाहिए। एक आदमी पीपल के वृक्ष के पास श्रद्धा | बनते हैं पृथ्वी पर। सागर भी प्रतिबिंब बनाता है, मानसरोवर में से जल चढ़ा रहा है। तुम पीपल का वृक्ष देखते हो, हाथ से भी प्रतिबिंब बनेगा। शांत झीलों में भी बनेगा। तूफान आये हुए गिरती जलधार देखते हो, मैं उसके भीतर गिरती श्रद्धा की धार सागर में भी बनेगा। मिट्टी के कूड़े-कचरे से भरे डबरों में भी देखता हूं। एक आदमी मंदिर की मूर्ति के सामने बैठा दीया जला बनेगा। नाली का जल कहीं इकट्ठा हो गया होगा, उसमें भी रहा है। तुम पत्थर देखते हो, मृण्मय दीया देखते हो, उसके बनेगा। चांद के प्रतिबिंब करोड़-करोड़ बनेंगे, चांद एक है। गंदे भीतर चिन्मय की धार नहीं देखते। एक आदमी विराट, सूनी डबरे में भी बनेगा। प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो जाएगा। क्योंकि मस्जिद में बैठा परमात्मा का गीत गनगना रहा है। कोई है जो प्रतिबिंब तो है ही कहां, जो गंदा हो जाए चुप बैठा है वृक्ष के तले, बुद्ध की भांति-न कोई प्रार्थना है, न प्रतिछाया है। कोई पूजा है; न कोई बाह्य उपकरण है, न कोई साधन है; न लेकिन फिर भी गंदा डबरा तो गंदा है। तो गंदे डबरे से अगर मंदिर है, न मस्जिद है; आंख बंद है-अपने में लीन। लेकिन तम पछोगे कि जो चांद तेरे भीतर बना. उसके संबंध में तेरा क्या इन सबके भीतर एक बात समान है, वह भीतर की खयाल है? तो गंदा डबरा जो कहेगा, उसमें गंदगी जुड़ी होगी। चैतन्य-धारा। बाहर के उपकरण भिन्न-भिन्न हैं। बाहर के तो स्वाभाविक है। उसने तो वही चांद देखा, जो उसकी गंदगी में सब खिलौने हैं. जिससे मर्जी हो उससे खेल लेना, भीतर रसधार | प्रतिछायित हो सकता था। मानसरोवर से पूछोगे, तो वह अपने बहती रहे।
चांद की बात करेगी। इसीलिए तो दनिया में इतने धर्म हैं। अगर कल मैं पढ़ रहा था
ठीक से समझो, तो हर आदमी का खदा अलग होगा। आदमी खके-सेहरा पे जमे, या कफे-कातिल पे जमे
आदमी में इतने फर्क हैं। फर्के-इंसाफ पे या पाये-सलासिल पे जमे
मेरे भीतर का ईश्वर, तेग-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे
विकराल क्रोध है, ऊसर, अनजोती जमीन खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा
पर तांडव का त्यौहार रचानेवाला!
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