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जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है
की तरफ ! पहले जमीन पर ही आंखें भी गड़ी थीं। एक तालमेल था। दुकान पर थे तो दुकान पर थे। अब पैर दुकान पर होंगे, आंखें मंदिर में। अब करते होओगे भोजन, स्मरण आत्मा का । अब गिनते होओगे रुपये और भीतर याद परमात्मा की। अब अड़चन हुई। अब एक द्वंद्व शुरू हुआ। एक महाद्वंद्व, एक संघर्ष, जिसको गीता कहती है – कुरुक्षेत्र। अब एक धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, उपद्रव शुरू हुआ ! अब एक बड़ा संघर्ष है। आज भी है 'मज़ाज़' खाकनशीं और नजर अर्श पर है क्या कहिये फिर वही रहगुजर है क्या कहिये जिंदगी राह पर है क्या कहिये आह तो बेअसर थी बरसों से नग्मा भी बेअसर है क्या कहिये हुस्न है अब न हुस्न के जलवे अब नज़र ही नज़र है क्या कहिये
धीरे-धीरे, सौंदर्य तो सब खो जाएगा, दिखायी पड़नेवाली चीजें तो सब खो जाएंगी, रूप तो सब खो जाएगा, आकार तो सब खो जाएगा, आंख ही बचेगी। शुद्ध। अब नजर ही नजर है क्या कहिये
सत्य को जन्म हो, तो गर्भ धारण करना ही होगा। जिसको तुम अभी कांटा कह रहे हो, वह तुम्हारे भीतर पड़ गया गर्भ का बीज है । चुभता है, इसलिए कांटा कहते हो, ठीक । गड़ता है, इसलिए कांटा कहते हो, ठीक। लेकिन उसी कांटे में तुम्हारा सारा भविष्य, तुम्हारी सारी नियति निर्भर है। अगर सत्य तुमसे | जन्म ले ले, तो वही तुम्हारा जन्म होगा। और निश्चित ही यह पीड़ा साधारण प्रसव की पीड़ा से बहुत ज्यादा है। क्योंकि साधारण प्रसव की पीड़ा में तो तुम दूसरे को जन्म देते हो, नौ महीने में झंझट खतम हो जाती है। यहां तो तुम्हें अपने को जन्म | देना है। समय का कुछ पक्का नहीं कितना लगेगा। नौ महीने भी लग सकते हैं, नौ वर्ष भी लग सकते हैं, नौ जन्म भी लग सक हैं। । तुम पर निर्भर है। कितनी त्वरा, कितनी प्यास, और झेलने की कितनी क्षमता ! अहोभाव से झेलने की क्षमता, आनंदभाव से झेलने की क्षमता, नाचते हुए झेलने की क्षमता, इस पर निर्भर करता है; उतना ही समय कम होता जाएगा।
उसी को तो हमने दर्शन कहा है, द्रष्टा की स्थिति कहा है, साक्षीभाव कहा है । सब खो जाएगा। सब दृश्य खो जाएंगे। सिर्फ आंख। पहले तो बड़ा सूनापन, बड़ा सन्नाटा लगेगा।
पूछा है, अकेले-अकेले तड़फ रहे हैं, इसका जिम्मेवार कौन ? मुझे पता है, जब व्यक्ति परमात्मा की तरफ चलता है, तो पहले तो संसार छूटने लगता है हाथों से, भीड़ विदा होने लगती है, अकेला रह जाता है। परमात्मा मिले, इसके पहले बिलकुल अकेला हो जाता है। जब बिलकुल अकेला हो जाता है, तभी तो परमात्मा के योग्य बनता है। महावीर ने उस
पीड़ा स्वाभाविक है। लेकिन उस पीड़ा को सौभाग्य बनाने की अकेलेपन को कैवल्य कहा है। जब बिलकुल केवल तुम ही रह चिंता करो।
ये तुम्हारा होना ही रह गया।
हुस्न है अब हुस्न के जलवे,
है। एक नये जीवन का आरोपण, उस नये जीवन का भीतर बढ़ना । फिर वह उसी बच्चे के लिए जीती है। नौ महीने तक उसी के लिए सांस लेती है, उसी के लिए भोजन करती है, उसी के लिए उठती - बैठती है । स्वभावतः एक गहन सृजन की प्रक्रिया होती है, लेकिन पीड़ा ! फिर बच्चे का पैदा होना और बड़ी प्रसव पीड़ा है।
तो जैसे-जैसे तुम मेरे जाल में फंसोगे, वैसे-वैसे पीड़ा बढ़ेगी। गर्भित हुए। सत्य ने तुम्हारे भीतर जगह बनायी । अब तुम्हें बहुत-सी पीड़ाएं होंगी जो तुम्हें कभी भी न हुई थीं। वह सत्य को जन्म देने की पीड़ाएं हैं। और वे बढ़ती जाएंगी क्रमशः, जैसे- जैसे नौ महीने का समय करीब आयेगा वे बढ़ती जाएंगी। और आखिरी क्षण में तो महापीड़ा होगी। लेकिन उस पीड़ा से गुजरे बिना कोई सत्य को जन्म नहीं दे पाता।
आज भी है 'मज़ाज़' खाकनशीं
और नजर अर्श पर है क्या कहिये
जैसे ही तुम मेरे करीब आये, एकदम से तुम आसमान पर तो न पहुंच जाओगे। रहोगे तो तुम जमीन पर, सिर्फ नजर आकाश की तरफ उठेगी। अड़चन शुरू हुई। पैर जमीन पर, आंख आकाश
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अब नज़र ही नज़र है क्या कहिये !
पीड़ा होगी। बड़ी गहन रात्रि मालूम होगी। पर सूरज के ऊगने के पहले रात तो गहन अंधेरी हो ही जाती है।
इस एकांत को अकेलापन मत समझो। इस एकांत को उसे
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