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जीवन ही है गुरु
जंजीर कितनी ही सोने की बनी हो, हीरे-जवाहरात जड़ी हो, तो कि संन्यास मत लो, बुढ़ापे में लेना। तुम बूढ़े हो गये हो, तुम भी जंजीर है। और कारागृह कितना ही सजा हो, तो भी कारागृह | कहते हो कि जिम्मेवारियां हैं। है। दोनों से मुक्त हो जाना है। न अच्छा, न बुरा। इन दोनों के आदमी सुन-सुनकर जिन बातों को ठीक मान लेता है, उन्हें जो पार हो गया, वही शुद्ध स्वभाव को उपलब्ध होता है। इसको | कभी हृदय से थोड़े ही ठीक मानता है। ठीक मान लेता है, महावीर निर्वाण कहते हैं। इसको निर्विकल्प चारित्र्य कहा है। | क्योंकि कौन जद्दोजहद करे, कौन तर्क करे, कौन विवाद करे! इसे हम दूसरों से बातें सुनकर नहीं पा सकते। दूसरों से सुनेंगे तो | ठीक है संन्यास, मगर अभी नहीं। जो ठीक है, तो अभी। और हमारे मन में और ही तरह की बात उठती है।
जो ठीक नहीं है, तो कभी नहीं। ऐसा साफ होना चाहिये व्यक्ति मेरे पास एक वृद्ध सज्जन आये। उनके युवा बेटे ने संन्यास ले को। अगर कोई चीज सत्य है, तो फिर एक क्षण भी उसे टालना लिया है। वे बहुत नाराज थे। उनकी उम्र होगी कोई पचहत्तर उचित नहीं। कौन जाने वह क्षण आये, न आये। कल आये, न
कहने लगे, आपने यह क्या किया? मेरे युवा बेटे को आये। बुढ़ापे के पहले ही आदमी मर जा सकता है। या बुढ़ापे में संन्यास दे दिया। यह तो बढ़ापे की बात है। यह तो आखिरी इतना अपंग हो जाए कि फिर कुछ भी न कर पाये-बैठ भी न बात है संन्यास।
सके, उठ भी न सके, खाट से लग जाए। संन्यास आखिरी बात है! उसे टाले जाना है अंतिम क्षण के | तो जो सत्य है, तो अभी। अगर सत्य नहीं है, तो साफ समझो लिए। जब हाथ-पैर में कोई शक्ति न होगी, और श्वासें | कि कभी नहीं। बुढ़ापे में भी क्यों? चार दिन बुढ़ापे के बचे हैं, लड़खड़ा जाएंगी, तब संन्यास लेंगे? जब पैर उठते न बनेंगे। उनको भी ठीक से भोग लेना। उनका भी कुछ उपयोग कर जब तक पैर उठते थे तब तक वेश्यागृह गये और जब पैर न लेना-थोड़ा धन और इकट्ठा कर लेना। उठेंगे, तब दूसरों के कंधों पर सवार होकर मंदिर जाएंगे। ऊर्जा | लेकिन आदमी बड़ा होशियार है। वह तर्क से कुछ बातों को पर ही तो सवार होना होता है। जब तक ऊर्जा रहती है, तब तक | ठीक मान लेता है। क्योंकि कौन विवाद करे! या पंरपरा से ठीक आदमी संसार की बातों में पड़ा रहता है। कहते हैं धर्म की बात | मान लेता है। सभी ठीक मानते हैं, इसलिए ठीक होंगी। ठीक है, वह बूढ़े सज्जन कहने लगे धर्म की बात बिलकल ठीक | एक बहुत बड़े मनस्विद मायर्स ने अपने संस्मरणों में लिखा है, मैं यह नहीं कहता कि संन्यास गलत है, लेकिन समय अभी है...मायर्स खोज कर रहा था कि लोगों की क्या धारणा है, मरने नहीं है।
| के बाद क्या होता है, इस संबंध में। तो वह जो भी मिलता उससे मैंने कहा ठीक है, आपके बेटे को मैं समझा-बुझाकर वापिस ही पूछता कि तुम्हारी मरने के बाद क्या स्थिति होगी, इस संबंध संसार में भेज दूंगा; आपका क्या इरादा है? यह वे सोचकर न में क्या धारणा है? एक महिला से उसने पूछा, उसकी जवान आये थे। वे तो बेटे को छुड़ाने आये थे। लेकिन मैंने कहा, बेटा बेटी अभी-अभी मर गयी थी, तो उसने पूछा कि तुम्हारी बेटी मर छूटे तो एक ही शर्त पर छूट सकता है। कि आपकी तो उम्र गयी, तुम्हारा क्या खयाल है, तुम्हारी बेटी का क्या हुआ होगा? पचहत्तर साल हो गयी, आप कब बूढ़े होंगे अब? उन्होंने कहा, तो उस महिला ने बड़े क्रोध से देखा और कहा, क्या हुआ वह तो ठीक है, लेकिन अभी बहत जिम्मेवारियां हैं। होगा? वह स्वर्ग के सुख भोग रही है। लेकिन मैं आपसे प्रार्थना
बेटे को भी ऐसी ही जिम्मेवारियां होंगी पचहत्तर साल के हो | करती हूं कि इस तरह की दुखदायी बातें मुझसे न करें। अब इसे जाने पर। जिम्मेवारियां कम नहीं होतीं, बढ़ती जाती हैं। क्योंकि थोड़ा सोचो, मायर्स ने लिखा है कि एक तरफ वह कहती है, जिंदगी रोज और नयी-नयी जिम्मेवारियों को इकट्ठा करती चली स्वर्ग के सुख भोग रही है, और दूसरी तरफ कहती है कि आप जाती है।
इस तरह की दुखदायी बातें न करें। तो फिर मैंने कहा, बेटे को ले लेने दो, कम से कम वह इतना | एक ही वचन में दो विरोधाभास! अगर वस्तुतः लड़की स्वर्ग तो कहता है कि मेरे ऊपर कोई जिम्मेवारियां नहीं हैं। न अभी के सुख भोग रही है, तो दुखदायी बात नहीं है। और अगर उसने शादी की है, न अभी घर बसाया है। अभी तुम कहते हो दुखदायी बात है, तो स्वर्ग के सुख की बात केवल कल्पना है।
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