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जिन सूत्र भाग: 2
है । साधना, सुविधा में विरोध दिखायी पड़ता है। लेकिन उन्हीं को, जिन्होंने जीवन के गणित को समझा नहीं ।
दिनभर तुम श्रम करते हो, रात सो जाते हो, विरोध का खयाल नहीं किया? तुम यह नहीं कहते कि कल भी मुझे काम करना है, रात सो जाऊंगा, शिथिलता आ जाएगी। जागा रहूं रातभर । क्योंकि कल भी तो जागना है। तो जागने का अभ्यास जारी रखूं। अगर तुम रातभर जागे, तो कल सोओगे फिर । जाग न सकोगे। जीवन का गणित यही है कि विपरीत से मिलकर बना है जीवन । दिनभर जागे हो, रातभर सो जाओ। रातभर ठीक से सोये, तो सुबह कल फिर ठीक से जाग सकोगे। अगर श्रम किया है, तो विश्राम कर लो । श्रम ही श्रम करते रहे, तो भी पागल हो जाओगे। विश्राम ही विश्राम करते रहे, तो जीवन की सारी संपदा खो जाएगी । श्रम और विश्राम का संतुलन है जीवन। दोनों को एक-साथ साधना है।
कुछ लोग सुविधा को साधते हैं, इनको ही हम सांसारिक कहते लोग साधना को साधते हैं, इन्हीं को हम संन्यासी कहते
हैं। | कुछ रहे हैं।
मेरे संन्यासी को मेरा आदेश बड़ा भिन्न है। मैं कहता हूं, सुविधा में साधना को साधना | साधना और सुविधा को तोड़ना मत, जोड़ना । जब साधना से थक जाओ, सुविधा में डूब जाना । सुविधा से थक जाओ, तैयार जाओ, विश्राम पा लो, फिर साधना में लग जाना। जीवन विपरीत को विपरीत की तरह नहीं देखता। वहां विपरीत परिपूरक है।
दूसरा प्रश्न : भीतर समता का, आनंद का दीया अधिक समय स्थिर रहने पर भी कभी टिमटिमाने लगता है। क्या यह मेरे निर्माण की भूमिका है, अथवा मेरी किसी शिथिलता का परिणाम ? यह ठीकपन या सम्यकत्व का आनंद सदा अकंपित रहे, इसके लिए अपने अनुभव से मेरा मार्ग प्रकाशित करने की कृपा करें।
एक क्षण से ज्यादा का विचार ही मत करो। उसी के कारण दीया टिमटिमाने लगता है। एक क्षण से ज्यादा तुम्हारे हाथ में नहीं है। सदा अकंपित रहे, यह आकांक्षा ही क्यों करते हो ?
सदा स्थिर रहे, यह वासना ही क्यों करते हो? कल की बात ही क्यों उठाते हो ? आज काफी है। अभी, यही क्षण काफी है। एक क्षण से ज्यादा तो एक बार तुम्हें मिलता नहीं। एक-साथ दो क्षण तो कभी मिलते नहीं।
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एक क्षण भी अगर समता का दीया ठहरा रहता है, फिकिर छोड़ो। इसी क्षण को जी लो पूरा, भरपूर । निचोड़ लो पूरा सार, रस! यह जो क्षण का अंगूर है, बना लो इसकी सुरा । यही क्षण काफी है। जैसे ही तुमने सोचा, यह जो आनंद अभी मिल रहा है, सदा रहेगा ? तुम्हीं ने हवा के कंप पैदा कर दिये । दीया नहीं कंप रहा है; तुम्हारे मन ने ही दीये को कंपा दिया। आनंद नहीं कंप रहा है, तुम भविष्य को बीच में ले आये। तुमने कल की चिंता बीच में डाल दी। कल है कहां ? और कल जब आयेगा तब आज की तरह आयेगा। तुम आज को सम्हाल लो।
जिसने आज को सम्हालना जान लिया, उसने शाश्वत को सम्हाल लिया। लेकिन हमारी अड़चन क्या है? जो हमारे सामने होता है, अगर कभी आनंद आता है, तो हम घबड़ाते हैं कि छूट तो न जाएगा ? अभी आया है इसे भोगते नहीं, चिंता करते हैं कि कहीं छूट तो नहीं जाएगा ? आनंद छूट ही गया। यह मौका चूक ही गया। तुमने सोचा कि छूट तो नहीं जाएगा, कि गया । छूट ही गया । तुम टूट गये, अभी। दीया कंप गया।
आनंद आये, तो भोगो। कल को क्यों उठाते हो ? कल लेना-देना क्या है ? जहां से आज आया है, वहीं से कल भी आता रहेगा। फिर कल जब आयेगा, तब देख लेंगे। अभी तो यह अवसर मिला है, इसे भोग लें। अभी तो यह क्षण मिला है, इसे ना लें। अभी तो यह गीत की कड़ी उतरी है, गुनगुना लें । अभी तो पैर थिरकें, मृदंग बजे। इस क्षण तो जो मिला है, इसमें से रत्तीभर भी न चूके, इसकी चिंता लो। क्योंकि क्षण भागा जा रहा है। हाथ से फिसलता जाता है। निकलता जाता है। तुमने अगर जरा - ही इधर-उधर देखा कि चूके । दायें-बायें देखा कि गये ! इतनी देर कहां है? तुमने पूछा कि यह क्षण चला तो नहीं जाएगा - यह जा चुका! यह गया ! तुम्हारे हाथ में नहीं है अब । इतना भी अवकाश कहां है कि तुम सोचो ?
भोगो! सोचने से काम न चलेगा। और जैसे ही तुम इस क्षण को भोग लोगे, इस क्षण ने बुनियाद रखी आनेवाले क्षण की। इस क्षण को तुमने भोगा, रस की धार बही, तुम और रस की धार
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